रविवार, 29 अगस्त 2010

अच्छा लगता है....

कभी यादों के कूचे से गुज़रना ,अच्छा लगता है
गए लम्हों को फिर साँसों में भरना ,अच्छा लगता है

वो दुनिया से जुदा हो कर मेरे पहलू में आ जाना
तेरी दीवानगी महसूस करना ,अच्छा लगता है

किया करते थे हम कोशिश हसीं लम्हे चुराने की
चुराए वक्त में जीना औ' मरना ,अच्छा लगता है

तड़प दिल में वही है चाहे हम तुम मिल नहीं पाएं
खतों की मार्फ़त ,दूरी बिसरना,अच्छा लगता है

हज़ारों काम हैं तुमको ,बनिस्बत इसके भी जानम
तेरे ज़ेहन से हर लम्हा गुज़रना अच्छा लगता है

हकीक़त या तस्सवुर है ,मुझे कुछ होश ना इसका
सिमट कर तेरी बाँहों में बिखरना,अच्छा लगता है

1 टिप्पणी:

Deepak Shukla ने कहा…

मुदिता जी..

तेरे संग संग में चलना भी, अजब सा है सकूँ देता...
ग़ज़ल पर तेरी रुक कर के, ठहरना अच्छा लगता है...
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इसी तर्ज़ पर मेरे भी दो अशार अर्ज़ हैं....

वो रहते हैं तो संग में ही, मेरी यादों में वो बसते...
कभी यादों से होकर भी , गुजरना अच्छा लगता है...

घिरे हैं हम तो दर्दों में, कहें किस से ये हाले-दिल...
किसी की चाह में यूँ ही, तड़पना अच्छा लगता है....

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सुन्दर ग़ज़ल...

दीपक....