रविवार, 22 अगस्त 2010

क्रंदन--(आशु रचना )


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हृदय का मेरे
मूक क्रंदन ,
प्रेषित करता
जब स्पंदन ,
विचलित
तुम भी ,
हो उठते हो ,
कैसा अप्रतिम है ,
ये बंधन

बिना नाम के
ये रिश्ते यूँ
अदृश्य डोर से
हैं जुड़ जाते
बंधन बिन भी
बंधे हैं हम तुम
राह हर इक
संग संग
मुड़ जाते

कभी साथ
रहने वाले भी
हृदय मगर
छूने ना पाते
मूक भाष्य को
क्या समझे वो
उलझे अपने में
रह जाते ....

दूरी नजदीकी का कोई
अर्थ नहीं
रूह के
रिश्तों में ..
सूक्ष्म रूप में
जुड़ने वाले
जीवन ना जीते
किश्तों में ...

हर पल साथ है
सूक्ष्म रूप ये
हर कण में
बस ये ही समाया
उस विराट ने
जग वालों को
देखो तो
कैसे भरमाया ...!!!

2 टिप्‍पणियां:

खोरेन्द्र ने कहा…

bahut sundar rachna

padh kar

man prasann ho gaya

kishor

Deepak Shukla ने कहा…

Hi..

Man ka man se arpan ho gar..
Roohen bhi mil jaati hain..
Bandhan dikhta bhale nahi ho..
Roohen par bandh jaati hain..

Sukshm rup main rahne wale..
Man ke bhav samajhte hain..
Deh rup hai nashwar sab kuchh..
Neh rooh se karte hain..

Sundar bhavabhivyakti..

Deepak..