पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!
विलय हुईं
सागर में
नदियाँ ,
विरह में
गुजरी
कितनी
सदियाँ ,
जीवन कर्म
निभाने को
वाष्पन भी
है जरूरी ...
निशा दिवस
इक साथ सदा
सीमित दृष्टि में
जुदा जुदा ,
जिस पल में
उजला दिन
दिखता
क्षण उसी में
रजनी गहरी ....
पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!
विलय हुईं
सागर में
नदियाँ ,
विरह में
गुजरी
कितनी
सदियाँ ,
जीवन कर्म
निभाने को
वाष्पन भी
है जरूरी ...
निशा दिवस
इक साथ सदा
सीमित दृष्टि में
जुदा जुदा ,
जिस पल में
उजला दिन
दिखता
क्षण उसी में
रजनी गहरी ....
पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!
1 टिप्पणी:
आना जाना,मिलना-बिछड़ना,रुकना-चलना, कुछ आँसू-कुछ स्मितमय , यह ही तो अपना जीवन है।
सादर-
देवेंद्र
मेरी नयी पोस्ट- कार्तिकपूर्णिमा
एक टिप्पणी भेजें