बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

कभी झांको ज़रा खुद में....

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वो बन के
आशना
क्यूँ भोंकते हैं
विष बुझा
खंजर ..!!
कभी झांको
जरा खुद में
अजी !
यह देख लो
मंजर ...

लगा दो
तोहमतें
कितनी भी,
बेशक !
नहीं है
कुछ कभी
हासिल ..
कि देते हो
तुम्ही
मौका ,
क्यूँ रहते
खुद से
तुम
गाफिल !!
क्यूँ करते
फूल की
चाहत ,
है सींची
जब धरा
बंजर !!
कभी झांको
जरा खुद में
अजी !
यह देख लो
मंजर ...

सभी काटे
गले
एक दूसरे के
ऐसी
आफ़त क्या !!
गिरा कर
दूसरे को ही
है साबित
होती
ताक़त क्या !!
भुला बैठें हैं
सब जीना
बचे हैं
अब तो
बस
पिंजर ......
कभी झांको
जरा खुद में
अजी !
यह देख लो
मंजर ...





5 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

kabhi jhaanko khud mein ... to shayad koi hal mil jaye

Kailash Sharma ने कहा…

यही तो समस्या है, कोई खुद में झाँक कर नहीं देखना चाहता.अगर ऐसा करे तो बहुत सी समस्याएं पैदा ही न हों...बहुत सुन्दर प्रस्तुति

रजनीश तिवारी ने कहा…

कभी झांको
जरा खुद में
बहुत अच्छा संदेश है आपकी इस कविता में ...
शुभकामनाएँ ...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

सुन्दर भावों की रचना......वास्तव में अपने अन्दर झाँकने की जरूरत है

Satish Saxena ने कहा…

नया अंदाज़ !
शुभकामनायें !