मंगलवार, 18 जून 2019

पत्थर भी पिघल जाए.....


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मुमकिन है मोहब्बत से तशद्दुद भी बदल जाये
देख कर फ़ितरते मोम पत्थर भी पिघल जाए.....

बर्क लहराई थी शामे वस्ल जो तेरी आँखों में
नूर में उसके मेरी शबे हिज्र भी  ढल  जाए.....

जिस्मे पत्थर में खुद को छुपा लूँ कितना
ख़ुश्बू-ए-रूह बिखरने को फिर भी मचल जाए....

नज़रों से दूर मगर मुझमें बसे रहते हो
इक इसी बात पर मेरा दिल भी बहल जाए....

टूट कर जाऊँ बिखर वो पत्थर तो नहीं मैं
वजूदे मोम हूँ जो किसी साँचे में भी ढल जाए.....

बीमारे इश्क़ की ना पूछना खैरियत यारों
दिखे महबूब तो तबियत भी सम्भल जाए.....

मायने:
तशद्दुद-कठोरता/aggression
बर्क़-बिजली/lightening
शामे वस्ल-मिलन की शाम
शबे हिज्र-जुदाई की रात

1 टिप्पणी:

Anita ने कहा…

वाह ! बेहतरीन