गुरुवार, 5 जनवरी 2012
पोशीदा कड़ी...
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गुज़रते हुए
कूचा-ऐ-मौसिकी से
लिपट जाता है
अक्सर
कदमों से मेरे
कोई नग्मा
बिसराया बरसों से...
थम जाते हैं
बेसाख्ता
पाँव मेरे
करते हुए
महसूस
एक कशिश
सिम्त
उसके बोल
और
सुरों के..
करता है
वह गीत
सरगोशियाँ
नाज़ुक सी,
गहराईयों में
मेरे दिल की,
फैलाते हुए
मुन्फ़रीद
मिठास
और
एहसासात....
हौले से मैं
बिखरा देती हूँ
फिज़ाओं में
लम्बी उँगलियों से
तरन्नुम उसकी,
और
दे देती है
लहरें आहंग की
खुद बखुद
दस्तक
दर पर
अपने हमसफीर
दिल के ....
शुक्रिया !
शुक्रिया !
मेरे अज़ीज़
भूले बिसरे नग्मों,
कायम हो तुम
ना जाने कब से
बन कर
पोशीदा यक कड़ी
इस अबोले
अनाम रिश्ते की....
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मायने -
कूचा-ऐ-मौसिकी=संगीत की गली
सिम्त=दिशा,
सरगोशियाँ=कानाफूसियाँ ,
मुन्फ़रिद=अनूठा
आहंग=संगीत/मेलोडी,
हमसफीर =संग में गाने वाला,
पोशीदा =अदृश्य
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3 टिप्पणियां:
गहरे अहसास में डूबी पंक्तियाँ !
आभार !
संगीत का जादू है ही ऐसा...और फिर पुराने गीतों का क्या कहना...
संगीत का गहरा असर है ...
अच्छी रचना है ...
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