बुधवार, 6 अप्रैल 2011

हिज्र ...

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है सहरा
हिज्र का
कैसा ये
जालिम!!
कि अब तो
अश्क भी
खुश्क
हो चले हैं...
तपिश
बढ़ती गयी
हर ज़र्रा ज़र्रा,
कि देखो
आग बिन
हम
यूँ जले हैं!!!!

8 टिप्‍पणियां:

विशाल ने कहा…

हिज्र का सहरा है ही ऐसा.

अच्छा शेर.
सलाम.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

अब तो
अश्क भी
खुश्क
हो चले हैं...
..... intzaar kee had hoti hai

ashish ने कहा…

पढ़कर मन मुदित हुआ . आभार

दीपक बाबा ने कहा…

आग बिन हम यूँ जले हैं....

खूबसूरत........

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

AAG BIN HAM YOUN JALE HAIN....
SUNDAR RACHNA.

बेनामी ने कहा…

मुदिता जी.......बख़ूबी दर्द को उकेरा है ......पर यहाँ मुझे लगा ....."बढ़ती गयी
हर ज़र्रा ज़र्रा," की जगह 'तपिश बढती गयी ज़र्रे - ज़र्रे की' होना चाहिए था......

Vijuy Ronjan ने कहा…

bahut khoob...
aag bin jalna
jaise-
bina paanv ke chalna
jaise karake ki thand me
ahista ahista barf ho galna


shayad mere udgar aapko bata sakein ki mujhe aapki prastuti achhi lagi.badhayee

मुदिता ने कहा…

विशाल जी ,रश्मि जी ,आशीष जी ,दीपक जी ,सुरेन्द्र जी ,इमरान जी और विजय जी ..आप सब का बहुत आभार

@ इमरान जी ,
आपकी सोच भी अपनी जगह सही है किन्तु मैंने जिस अनुभूति के तहत लिखा वह यह है कि आग बिन हमारे जलने से तपिश फैलती गयी ..ज़र्रा ज़र्रा ...इसको महसूस कीजिये ..जैसे सूखे जंगल में आग फैलती जाती है उसी तरह कुछ :) :) ..दोनों बात के अलग एहसास मिलेंगे आपको...