शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मुन्तज़िर नज़रें

सहर होते ही टिक जाती हैं ये
दहलीज पर जा कर
तेरे पैग़ाम की कब से
रही हैं मुन्तज़िर नज़रें

किसी आहट ,किसी जुम्बिश से
हो जाता है दिल गाफ़िल
गली के छोर तक जा कर
पलट आती मेरी नज़रें

ए कासिद !अब तो आ पहुँचा दे
मुझ तक ,कुछ खबर उनकी
कि पथरा जाएँ ना यूँ
राह तकती हुई नज़रें

1 टिप्पणी:

शेषधर तिवारी ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने. अंतिम पंक्ति में यदि "यूँ" की जगह "यूँ ही" करके पढ़ा जाय तो रवानगी अच्छी हो जाती है.