रविवार, 24 मई 2009

नज़रों में ज़माने की

लबों पे मेरे जब मस्सर्त-ए-जज़्बात उतर  आए
नज़रों में ज़माने की सवालात उभर आए

रहे ग़मज़दा तो सुकून से रहती है ये दुनिया
अंधेरों से ना आओ उजाले में ,कहती है ये दुनिया
क्यूँ गुनगुना उठा दिल क्यूँ चमक गयी आँखें
क्या हुआ जो तब्बस्सुम-ए-रुखसार निखर आए..
नज़रों में........

किस का करे गिला ये दिल ,किस को पुकारे
हर शख्स परीशां है खुद अपने ज़हन में
खुशियों का ख़जाना है हर इक को मयस्सर
झाँको ज़रा खुद में तो हालात सुधर जाए
नज़रों में ज़माने की.....

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