सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

बिखरे हों हरसिंगार ज्यूँ ......

 

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रूहानी राबिते थे

जिस्मानी बंदिशों में

मरासिम वो पुराना था,

अनजान पैरहन में....


ग़म कोई नहीं दिल को

हर नफ़स है नाम उसका

फिर कैसी नमी है ये 

नज़रों के कहन में....


जिस्मों का जुदा होना

मौजूँ ही नहीं अपना

घुटती हैं फिर क्यों रूहें

मा'शर के रेहन में .....


उससे बिछुड़ के मिलना ,

और फिर से बिछुड़ जाना 

बिखरे हों हरसिंगार ज्यूँ 

दिल के सहन में...

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मायने- 

राबिते- सम्बन्ध/connection

मरासिम- जानपहचान/bond

पैरहन- पहने हुए कपड़े/cloths

नफ़स-साँस/breath

मौजूँ-विषय/subject

मा'शर -समाज /society

रेहन - बंधक / mortgaged

सहन-आँगन/courtyard

6 टिप्‍पणियां:

Digvijay Agrawal ने कहा…


आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 27 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!




विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

सुन्दर लेखन

अनीता सैनी ने कहा…

बहुत ही सुंदर सृजन।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर सृजन

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा ने कहा…

नए अंदाज की बेहतरीन रचना।
उससे बिछड़ के मिलना ,
और फिर से बिछड़ जाना
बिखरे हों हरसिंगार ज्यूँ
दिल के सहन में...👌👌👌

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत समय से यहां कुछ लिखा नहीं?