शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

जीते हुए अपने अस्तित्व को


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बर्फीली ठंडक से हुए बेहाल
पातविहीन वृक्षों में
फूट पड़ी हैं कोंपलें नन्ही
बसंत की  नरम आहट के साथ ....

आलम मदहोश सा है
गुलाबी सर्दी का
उतर आया है गुलाबीपन
रूह-ओ-जिस्म में
लगता है यूँ
जैसे सुमधुर सुदर्शन
चेरी ब्लॉसम
डूब रहे हों आँखों के सागर में
या बहे जा रहे हो नयनों की नदिया में.....

विरह और मिलन का मंज़र
दिला रहा है याद प्रिय की,
स्पर्श उड़ते हुए फूलों का
करा रहा है एहसास
दिलबर की छुअन का,
कुनकुनी सर्द हवाएं
बढ़ा रही है बेताबी
होने को नरम आगोश में
सनम के
कर रहा है मुझको व्याकुल
यह दिखता और गुम होता सूरज..

हडसन किनारे
वाटर फ्रंट पर बैठे
लहरों पर खेलती
झिलमिल किरणों के बीच
दिख जाता है एक बिम्ब
मुस्कुराते हुए चेहरे का
बादलों के अम्बार में
डूब जाती हूँ बरबस
उसके होने के सुरूर में
जीते हुए अपने अस्तित्व को.......

2 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-04-2019) को " गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन की ९९ वीं पुण्यतिथि " (चर्चा अंक-3319) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर