न जाने 
कब और क्यूँ 
जाने अनजाने  
समझने लगते हैं 
हम 
ज़िन्दगी को 
खेल 
गिने हुए 
चौंसठ 
काले सफ़ेद खानों का 
और 
फंस जाते हैं
ओहदों , 
कायदों 
और चालों के 
अज़ाब* में ..
लगती है 
हर इक बाजी 
खेली हुई सी ,
गोया खेलते हैं हम 
मुताबिक 
खुद की  
जानिबदारियों* के,
साथ लिए 
महज़ 
झूठी अना*,  
और 
सोचते हुए 
शिद्दत से
चंद 
नीयत नुक्तों को,
देने शह और मात 
हर उस 'दूसरे' को 
जो होता है महसूस 
साथी इस खेल का ...
आजमाते हैं 
तरकीबें कई 
बिना बदले 
सोच और चालें अपनी,
लगने लगती हैं 
वही बस 
पहचान हमारी
साबित करने को
लियाकत* हमारी ....
सुनो ! 
मत करो 
क़ैद खुद को 
किसी शतरंजी खेल में 
महदूद* हैं जहाँ 
मायने ज़िन्दगी के
फ़कत हार और जीत में ... 
परे इस खेल के 
बिखरे हैं 
रंग बहुतेरे 
मोहब्बत के,
करते ही महसूस 
हर शै में
जिनको ,  
होने लगता है
एहसास 
कुशादा*-ए-हयात* का
हैं हम 
महज़ छोटे से हिस्से 
जिसके..
मायने- 
अज़ाब-नर्क/torture  
जानिबदारी-पूर्वाग्रह/biased 
अना- अहम/Ego
लियाकत-काबिलियत/capability
महदूद-सीमित/limited
कुशादा -विस्तृत /limitless 
हयात-ज़िंदगी /life 
 
 
4 टिप्पणियां:
मनन मंथन से निकली बेहतरीन रचना ...
सही कहा है
उम्दा अभिव्यक्ति।
जहाँ जन्म लेते ही जन्मकुंडली द्वारा आपका भाग्यचक्र निश्चित कर दिया जाये वहां ये शह और मात का खेल चलता रहेगा.. बहुत सटीक रचना ..साधुवाद
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