मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

महक

मेरी प्यारी दोस्त 'महक ' के लिए .........

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खिलते हैं प्रतिदिन कई पुष्प यहाँ
'महक' बिना किन्तु , है खुशबू कहाँ

गमकती बयार सी मन को महकाती
होने से उसके , हंसी लब पे थिरक जाती

सूना सा लगता 'अभिव्यक्ति' का चमन
'महक' ना कर पाती यहाँ गर रमण

गहनता सागर सी, नदी सा प्रवाह
ज्ञान अपनी नैनो में भरती अथाह

स्नेह से अपने है सबको यूँ बाँधा
बिन उसके सब कुछ लगता है आधा

चहकती फुदकती वो बुलबुल चमन की
भिगो देती है परते सभी अंतर्मन की

क्षणिक से ही आने से उसके यहाँ
चटकती हैं गुलशन में नयी कलियाँ

दुआ दिल से लब तक चली बस ये आये
'महक' से सदा हर चमन मुस्कुराये


3 टिप्‍पणियां:

POOJA... ने कहा…

bahut hi khoobsoorat kavita... aap bahut acchha likhtee hain...

M VERMA ने कहा…

क्षणिक से ही आने से उसके यहाँ
चटकती हैं गुलशन में नयी कलियाँ

खूबसूरत एहसास

कुमार संतोष ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता, आपकी जिंदगी में महक हमेशा बनी रहे !