मंगलवार, 8 जून 2010

जीवन क्रम ...

मानवता से प्रेम बड़ा है
मन के ऊपर मानवता ,
मन के भेद- अभेद खुले जब
दिखे छुपी निज दानवता

हैं परिभाषाएं गढ़ी हुई जो
लगती हैं सारी निस्सार
थोथा जीवन जीते  हैं हम
जान ना पाते इसका सार

चार  तरह के मनुज धरा पर
करते जीवन क्रम निर्धारित
कैसा जीवन पाए मानव
होता कर्मों पर आधारित

तिमिर से आना  तिमिर में जाना
व्यर्थ है मानव जीवन इसमें
ज्योति से गिर तिमिर को जाना
इंगित दुर्बल मन का जिसमें

जन्म तिमिर में ,किन्तु कर्मों से
हो जाता ज्योति को विकसित
ज्योति से ज्योति को  पाना
मानव धर्म है यही अपेक्षित

दृष्टा बन कर देखें निज को
घिरे रहें ना व्यर्थ भ्रम में
सकल चेतना करें  प्रवाहित
मुक्त रहें हम जीवन क्रम में

1 टिप्पणी:

Deepak Shukla ने कहा…

नमस्कार...
मैं आज ही लखनऊ से अल्प अवकाश के उपरान्त लौटा हूँ... सोचा की एक नज़र दाल लूँ इस बीच के आपकी कविताओं पर...

मन के भ्रम मैं छोड़ के बैठा...
सारे ताले तोड़ के बैठा...
निज मन मैं जब भी झाँका तो..
खुद से खुद को जोड़ के बैठा...

दीपक शुक्ल...