मंगलवार, 17 नवंबर 2009

महक

महक
फूलों की
नहीं
बंधती
चमन की
झूठी
बाड़ों में ..
नहीं
होती है
वो परतंत्र
कभी भी
इन
किवाड़ों में..

नहीं होता है
नियत लक्ष्य
कहाँ जाना
मिले किसको..
न कोई
होता पैमाना
किसे कम या
अधिक किसको

बसी है वो
हवाओं में
बने उसका
जो दीवाना..
भरे आनंद
उस
मन में
जगा दे
इक नया
सपना

बना ले
रूह को
अपनी
महक
ऐसे ही
गुलशन की...
उड़ा दें
दूर तक
खुशबु
हवाएं
तेरे
जीवन की

करो
कुछ ऐसा
जीवन में,
चमन
खिल जाए
हर शै में...
करो न
रूह को
बंदी
किसी
तू-तू
औ'
मैं-मैं में....

1 टिप्पणी:

आनंद ने कहा…

करो न
रूह को
बंदी
किसी
तू-तू
औ'
मैं-मैं में....
....
रूह कभी बंदी नहीं हो सकती मुदिता जी ...रूह तो सर्वथा स्वतंत्र है...उन्मुक्त है ..निरंतर है
शुभकामनायें मेरी !!