शनिवार, 31 जुलाई 2010

नदिया.....

नदिया..

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पिघल पिघल कर जल से अपने
जग की प्यास बुझाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

चिर बहना ही जीवन इसका
दूर दूर तक जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

ले कर अपनी लहरों के संग
किसे कहाँ पहुंचाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

जिस तट को भी ये छू कर गुज़रे
हरा भरा कर जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

कूड़ा कचरा जग वालों का
बहा संग ले जाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

प्रिय मिलन की उत्कंठा में
पल भर न सुस्ताती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती

करे यात्रा युगों युगों तक
तब सागर को पाती
नदिया....
खुद प्यासी रह जाती




शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

नाज़ुक मन ...

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मन के भाव
कभी शब्दों में
पूरे न गढ़ पाते,
कभी निरर्थक
परिहास भी
चोट बड़ी दे जाते ..

मन के आंसू
भिगो के मन को
जज़्ब वहीं हो जाते
दिल पर ठेस
लगी लफ़्ज़ों से
भाव मगर सहलाते ...

फिर भी मन
विद्रोही होता
समझ न कुछ भी पाता
बहलाती ,
फुसलाती इसको
पर लड़ता ही जाता ...

मान भरा मन
चाहे पल भर
साथ तेरे रहने को
बाँट दे सबको
जो तत्पर हैं
ग्रहण तुझे करने को ...

उस एक पल के
साथ में झोली
भर जायेगी मेरी
डूब के तेरे
प्रेम में हस्ती
तर जायेगी मेरी ......

जीवन का अंकगणित ...

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जीवन के इस अंकगणित में
इधर उधर क्यूँ जोड़ घटाना
अहम को खुद से घटा घटा के
है अभीष्ट बस शून्य को पाना

क्रोध ,अहम,ईर्ष्या द्वेष सब
जब घट जाते मन से प्राणी
शुरू प्रक्रिया पूजन की होती
विधि नहीं ऐसी कोई जानी

निर्मल मन प्यारे ईश्वर को
जिनमें कलुषित भाव न कोई
जोड़ करो सच्चे भावों का
दया प्रेम करुणा जो होई

करो विभाजित दुःख दूजे का
गुणन करो निज सुख का रब से
जितना सुख अंतर में होगा
बाँट पाओगे वो ही सबसे

हर विचार को घटा दो मन से
लोभ ,मोह, इच्छा हैं जो भी
शून्य को पाना है गर तुमको
करों गुणन स्वयं शून्य से तुम भी

शून्य सम जब हो जाओगे
ईश समा जायेंगे तुममें
बन जाओगे बंसी उनकी
स्वर फूटेंगे उनके जिसमें



........................................
........

बुधवार, 28 जुलाई 2010

अरमान-(आशु रचना )


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बड़े जतन से
बहला फुसला कर
छुपाये थे पंख
मैंने
अरमानो के अपने....
बरसों बरस
नहीं था
एहसास
पंखों के
होने का
इनको ....
पर
आने के साथ ही
तुम्हारे
जान गए हैं
अस्तित्व
अपने पंखों का
मेरे अरमान .....
लाख समझाने पर भी
उड़ लेते हैं
फडफडा के पंख
विस्तृत नभ में ...
लेकिन .!!
अब बहुत दिन हुए
उड़ नहीं पाए हैं
अरमान मेरे,
भीगे पंखों को
समेटे बैठे हैं
उस बारिश के बाद
जो बरसी थी
वक्त-ए -जुदाई
नैनों से अपने ...
नहीं निकला है
तब से
तेरी
आवाज़ का सूरज भी
आओ न !!
तोड़ के
तिलिस्म
बादलों का
दिखा दो न
धूप
मेरे अरमानो को...



चेतन...(आशु रचना )

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सत्य को पाने को होते
बस दो ही हैं रास्ते
डूब के पाओ मृत्यु में या
खो जाओ जीवन के वास्ते

पर दोनों में साम्य है गहरा
चेतन मनवा कहीं न ठहरा
डुबो के जीवन या मृत्यु में
सजग रहे चैतन्य का पहरा

वरना जीवन सभी हैं जीते
फिर क्यूँ मन रह जाते रीते
मौत भी क्या सच दे पाती है
मिल जाती जो सहज सुभीते

बिन चेतन के राह न कोई
ढूंढें गाफ़िल ,मंज़िल खोयी
हर पल का आनंद है जीवन
सजग दृष्टि जब जब न सोयी

बुद्ध ने पाया त्याग के जीवन
मीरा पा गयी प्रेम लगन संग
पायी दोनों ने ही मंज़िल
निमित्त बना था उनका चेतन

करो जागृत इस चेतन को
निज को देखो,जानो ,परखो
बढ़े चलो बस राह सत्य की
करो न विचलित अंतर्मन को .......

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

हबीब अपने...

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लगने लगे हैं चेहरे अब अजीब अपने
भुलाएं कैसे उसे,दिल के जो करीब अपने

गिरा है वक़्त के पहलु से वो हसीं लम्हा
जुड़े बेतार थे जिससे कभी , नसीब अपने

किस का हो सहारा इस दर्द-ए-जिगर को
लदे हैं कांधों पे खुद सबके, सलीब अपने

इश्क का फलसफा समझ आएगा कैसे
ढूंढते हैं किताबों में उसे अदीब अपने

हो न जाए जुम्बिश नज़रों-औ -लबों की
बज़्म में बैठे हैं जानां कई रक़ीब अपने

पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मेरा चित्र....

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चित्र बनाया मेरा जब भी
हर अपने पराये ने
थी हैरान मैं देख विविधता
खुद अपने ही साये में

कोई चित्र न मेरे जैसा
हुआ भ्रम ये कैसा सबको
साम्य नहीं उनमें भी कोई
था अचरज ये भी तो मुझको


दी तस्वीर थी सबको अपनी
जो मैंने निज की जानी थी
पर खींचा खाका सबने जो
सोच सभी की अनजानी थी

देखी फिर तस्वीर जो अपनी
राज़ ये मुझ पर खुल के आया
चित्र नहीं ,वो एक आईना
इसीलिए था जग भरमाया

जिसने देखा उसकी जानिब
अक्स खुद ही का उसमें पाया
उसी अक्स को समझ के मेरा
चित्र मेरा मन में उतराया

समझ गयी जब बात ये गहरी
मन हल्का जैसे हो आया
विचलित होना व्यर्थ है मित्रों
किसने हमको कैसा पाया ......!!!!!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

साथ ही हैं हम.....


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गुज़रते
वक़्त के
संग ,
हो रही
सांसें भी
अब
मद्धम ...
चले आओ,
छुपा लो
मुझको
बाँहों में
मेरे हमदम ....

संजो लूं
मैं
तेरी
हर
सांस,
हर
धड़कन
मेरे
दिल में ...
यही
एहसास
पाने को,
हों पल
कुछ
साथ
कम से कम ....

तेरी
नज़्मों को
छू कर,
छू लिया
जैसे
तुझे
मैंने ...
मिलूंगी
मैं भी
बन
गज़लें,
चले
जब भी
तेरी कलम ....

ये माना
दूर
होगे तुम ,
निगाहों से ,
छुअन
से भी ...
पवन
पुरवा
छुए
तुमको ,
समझना
छू रहे
हैं हम .....

हैं आँखें
नम

दिल भारी
घड़ी वो
आ गयी
आख़िर.....
निकलती
जान
जिस्मों से,
जुदा
होने को
है धड़कन ....

विदा
लेने को
आये,
कस के
बाहों में
कहा
तुमने....
क्यूँ
रोती हो,
कहाँ दूरी
ये देखो ,
साथ ही हैं हम .....

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सच्चा झूठ.... !!!!

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मेरी
साँसों से
गुज़र कर,
मेरे
एहसासों को
छू कर
उतर
जाते हो
गहरे उनमें,
हो जाते हो
उन्ही
में से
एक....
बन कर
एक
अनछुआ
एहसास
हो जाते हो
करीब मेरे
कल्पनाओं में
मेरी ,
और हो
उठता है
चन्दन सा  
सुवासित ,
ये तन
और
मन मेरा
जीती हूँ
उस एहसास
में डूब कर
वे चंद 
खूबसूरत 
लम्हे
जो नहीं बनते
हकीक़त कभी ...
रोम रोम
देता है
गवाही 
होने की 
तुम्हारे
और
सतह पर
होने की
बात कह
बहकाते हो
तुम ,
मुझे नहीं
खुद को....
नहीं है
अपेक्षा
प्रतिदान की 
शब्दों में,
नहीं है
अनिवार्य
तुम्हारा
सोचना भी
मुझको ,  
खुश हूँ
पा कर 
तुम्हें,
मेरी
और
सिर्फ मेरी 
उस दुनिया में
दूर है जो
हकीक़त से ...
पर !!
हो तुम
किसी भी
हकीकत से
ज्यादा सच्चे ,
कैसे
झुठला
पाओगे 
इस सच को ??
बार बार
नकारने से
"सच "
कभी
"झूठ"
हुआ है क्या ???

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जड़ें-एहसासों के दरख़्त की

जड़ें-एहसासों के दरख़्त की

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मन की
भूमि पर
उगे
एहसासों के
दरख़्त को
सींच कर
नेह जल से
कर लिया है
जड़ों को
अब
मजबूत इतना
कि तूफ़ान कोई
विचारों का
नहीं सकता हिला
जड़ों को
इस दरख़्त की  ..
नहीं
टिक पाते
पत्ते भले ही
इन तूफानों के
सम्मुख
और
हो उठता है
भ्रम
वीरानियों का
किन्तु
रहता है
सत्व
अक्षुण्ण
प्रवाह में
और
फूट आती हैं
कोंपलें
फिर से
इन दरख्तों पर
जड़ें हैं जिनकी
गहरी
मेरे मन के
गहरे
दृढ तल में ......

चाहत ...

पूछा था उसने
" साथ मेरे
क्या मिल रहा है ,
जो चाहती हो तुम ??"
निहारा था
निर्निमेष
उसे
मैंने,
दिल से
उठी आवाज़ को
पहुँचाया था
उस तक
अनकहे
अलफ़ाज़
और
मुस्कुराती आँखों के
ज़रिये...
मुस्कुरा दिया था
यह अनकहा
सुन कर
वो भी
"इस
नायाब साथ
के बाद
कुछ और
चाहना
बाकी ही
कहाँ !!!" .......

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और मेरी इस नज़्म को पढ़ कर मेरे अभिन्न मित्र की  प्रतिक्रिया  कुछ यूँ थी

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अजीब सा
सवाल था
उसका,
नज़रों को 
देख कर
कर रहा था
वो अनदेखा..

या था वो
नासमझ
नादां और
भोला,
तभी तो उसने
शबनम को
समझा था
शोला..

महसूस कर
एहसासों को भी
पूछ रहा था वो
शायद
खुद से ही खुद
जूझ  रहा था वो..

चाहत और
राहत को
अल्फाज़ देने की
हर कोशिश
होती है
नाकामयाब,
क्या कह सकता है
तफसील से
कोई अपनी
रातों का ख्वाब !

कुछ बातें
होती है
इतनी नायाब,
अच्छा होता
लफ़्ज़ों से
नहीं बस
मुस्कान से देती
तुम जवाब..

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

चले जाने को हैं अब वो....

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चले जाने को हैं  अब वो
ये दिल बेकल हुआ है यूँ
कि उनके प्यार की  खुशबू
जरा  साँसों में मैं भर लूँ

सजा लूँ मैं बदन  अपना
छुअन से उनके होठों की
चढ़े रंग यूँ  मोहब्बत का
खिले जैसे बसंत हर सूं

निगाहें गर मिलीं  उनसे
अयाँ हो जायेगी हालत
सिमट के उनकी बाहों में
छुपा लूं आँख के आंसू

मिलन के दिन बहुत छोटे
विरह की रात है लंबी
तड़प इस दिल की है कैसी
ये वो समझे या मैं जानूँ ...
चले जाने को हैं अब वो
ये दिल बेकल हुआ है यूँ .....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

क़दमों के निशाँ

खोजती हूँ
पदचिन्ह
तुम्हारे ,
दरिया-ए -वक्त
के साहिल की
रेत पर ...

रख कर
कदम
अपने ,
तेरे
क़दमों के
निशाँ पर,
पाती हूँ
सुकूँ ,
खुद को
तेरी
हमसफ़र
समझ  कर ...

लेकिन
हर
अगले
पल की 
लहर
मिटा
देती है 
वे चिन्ह
पहुँचती हूँ
तुम तक
मैं
जिनको
छू कर .....

धकेल
देती है
कश्ती
तुम्हारी ,
वक्त की
लहरें,
परे मुझसे ,
हो जाते हैं
दूर हम
मजबूर
हो कर
 ...

मैं गुम सी
साहिल पर
खड़ी
ढूंढती हूँ 
जाने क्या !
क़दमों के
निशाँ तो
बनते नहीं
हैं ना
पानी पर....!!!

================================================

प्रत्युत्तर..

कभी कभी किसी पल किसी मानसिक अवस्था के तहत कुछ सवाल उठते हैं और उन्ही सवालों के जवाब किसी दूसरे पल स्वयं से ही मिलने लगते हैं ....इस रचना का प्रत्युत्तर जो मन की गहराईयों से ..स्वयं की अनुगूंज सा उभर कर आया ..आप सबसे शेयर कर रही हूँ..

पहली रचना में जो सोच किसी को केन्द्र में रख कर लिखी गयी है.. उस सोच का प्रत्युत्तर उस किसी की तरफ से लिखने की कोशिश करी है ..


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खोजा करते हैं
पाँव के
निशानों को
जो,
होती नहीं
कुवत
उनमें
अपनी राहें
बनाने की ..

तुम नहीं हो
उनमें से
फिर क्यों
होकर
महकूम
मोहब्बत की
खोजती हो
निशाँ ऐसे
जो नहीं
मुझ तक
सिर्फ ,
जा सकते हैं
और भी कहीं .....

हमसफ़र तो
चलते हैं
संग संग
कदम दर कदम ,
नहीं भूलते
बेदारी
अपनी
रख कर
कदम पर
कदम....

लहरों के
हाथों
लिखा हो
मिटना
जिनका
अहमियत
क्या
ऐसे
निशानों की
जिंदगी में
अपनी

हर छोड़ा हुआ
निशाँ
पहुँचता है
इसी
अंजाम तक,
उड़ो !
उड़ान अपनी ,
पहुंचाएगी
तुम को
वही तो
मुझ तक
उड़ने को साथ
बेपायाँ
फलक में ..

मजाल
क्या है
वक़्त की
जो धकेले
कश्ती को
हमारी,
वक़्त
हम से हैं
हम
वक़्त से नहीं..

क्यों खोजती हो
रूक कर
उनको
जिनका नहीं
वुजूद कोई,
माज़ी के
निशाँ है बस
महरूम
ज़िन्दगी से...

देखते
रहने से
सतह
पानी की
नहीं
मिला करते
गौहर ,
छोड़
साहिल को
होगा डूबना
हमें
मंझधार में,
लगायेंगे गोते
और तैरेंगे भी,
और
जा पहुंचेंगे
उस पार...
उस पार...

मायने --

कुवत-सामर्थ्य
महकूम -गुलाम
बेदारी -जागरूकता
अहमियत-महत्व
बेपायाँ-असीम
फलक-आकाश
वजूद-अस्तित्व
माज़ी-विगत
गौहर -मोती
 
 
 

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

अखंडित अस्तित्व

######

बंटती हूँ
सुबह से
शाम तलक
ना जाने
कितनी बार
अलग अलग
रिश्तों में...
देता है
ऊर्जा ,
इन
टुकड़ों में
बंटने की  
मुझको ,
मेरा
अखंडित
अस्तित्व
जो होता है 
उन चंद
लम्हों में ,
होती हूँ
जब
मैं
सिर्फ
'मैं' ..
बिना नाम
और
रिश्ते के
तुम्हारे
पहलु में
तुम्हारी 
यादों में ....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

निगाहों की आशनाई है

######


मेरी नज़र में ,तेरे इश्क की रानाई है
तेरे खयाल ने लब पे  हंसी सजाई है

हुआ करे है तेरे साथ ज़िक्र मेरा भी
बहुत हसीन सनम   इश्क में रुसवाई है

थे तन्हा बज़्म में ,अजनबी चेहरों से घिरे
करार दिल का  तेरी याद ले के आई है 

तलाश आज भी है  फुरसतों के लम्हों की
गवाह जिनकी रही, सूनी पड़ी अमराई है

मेरे वजूद पे अक्स तेरा छा  गया ऐसे
पूछते लोग हैं कि  क्या  तेरी परछाई है

डुबो के खुश हूँ  सफीना तेरी मोहब्बत में
लहर जुनूं की  किनारे पे ले के आई है

धडकनें भी मेरी अब गीत तेरे गाती हैं
हुई जब अपनी निगाहों की आशनाई है

तुम्हारी याद से सोज़ां है मेरे दिल का चिराग
शम्मा है  बुझने को ,परवाना तमाशाई है !!

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

बेखुदी क्या है

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खबर नहीं कि खुदी क्या है बेखुदी क्या है
गुज़रती जाती है बस यूँही जिंदगी क्या है

चले हैं साथ तेरे छोड़ के ये रस्मों रिवाज
तेरे खयाल में जाना कि बंदगी क्या है

वो रिंद क्या जो बहक जाए चंद घूंटों में
खुदी संभाल न पाए वो मयकशी  क्या है

हर एक ज़र्रे में पाया है नगमगी का ख़लूस
जो दे सुनाई न हर सिम्त मौसिकी क्या है

खिल उठती है मेरे लब पर हंसी अकेले में
छुए बिना भी तुझे  होती गुदगुदी क्या है

नहीं है खौफ ,तेरे दिल का नूर हूँ जबसे
टिकी सहर-ए-मोहब्बत में तीरगी क्या है

मायने-

बंदगी- पूजा
रिंद- शराब पीने वाला
नगमगी -संगीत
ज़र्रे-कण कण
ख़लूस -निष्ठा
सिम्त-दिशा
मौसिकी-संगीत
खौफ-डर
सहर-ए -मोहब्बत- मोहब्बत की सुबह
तीरगी-अन्धकार

राज़ सृष्टि का....

हुआ सार्थक जीवन मेरा
मिला साथ जो तेरा
खुशियों से रीते हाथो को
मिला हाथ जो तेरा

महसूस किया तेरे होने को
हुए जो कम्पन मन में
सुना है मैंने उन बातों को
आवाज़ न होती जिनमें

साथ मिले पल भर का या फिर
जीवन बीते सारा
भरा प्रेम से मन गागर को
अमृत बन के तारा

अलग अलग दिखते हैं जग को
भेद है ये दृष्टि का
जुडी है रूहें किस बंधन से

राज़ है ये सृष्टि का

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