सोमवार, 19 जुलाई 2010

चाहत ...

पूछा था उसने
" साथ मेरे
क्या मिल रहा है ,
जो चाहती हो तुम ??"
निहारा था
निर्निमेष
उसे
मैंने,
दिल से
उठी आवाज़ को
पहुँचाया था
उस तक
अनकहे
अलफ़ाज़
और
मुस्कुराती आँखों के
ज़रिये...
मुस्कुरा दिया था
यह अनकहा
सुन कर
वो भी
"इस
नायाब साथ
के बाद
कुछ और
चाहना
बाकी ही
कहाँ !!!" .......

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और मेरी इस नज़्म को पढ़ कर मेरे अभिन्न मित्र की  प्रतिक्रिया  कुछ यूँ थी

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अजीब सा
सवाल था
उसका,
नज़रों को 
देख कर
कर रहा था
वो अनदेखा..

या था वो
नासमझ
नादां और
भोला,
तभी तो उसने
शबनम को
समझा था
शोला..

महसूस कर
एहसासों को भी
पूछ रहा था वो
शायद
खुद से ही खुद
जूझ  रहा था वो..

चाहत और
राहत को
अल्फाज़ देने की
हर कोशिश
होती है
नाकामयाब,
क्या कह सकता है
तफसील से
कोई अपनी
रातों का ख्वाब !

कुछ बातें
होती है
इतनी नायाब,
अच्छा होता
लफ़्ज़ों से
नहीं बस
मुस्कान से देती
तुम जवाब..

5 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हारे साथ के बाद कुछ और चाहना बाकी ही कहाँ है... :)
    बहुत बहुत ख़ूबसूरत,

    और नीचे का जवाब भी बहुत ख़ूबसूरत है :)

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  3. Hi,

    agar samajhta wo bhavon ko..
    fir na usne poochha hota...
    wo muskaan nirarthak jaati..
    gar na usne samjha hota..

    aankhon ki bhasha wo padhta...
    to na tujhse poochha hota...
    sang main uske kya hai milta?
    samajh swatah hi gaya wo hota..

    Achha hai uttar de daala..
    usne bhi socha to hoga...
    tera uttar sunkar uska...
    dil thoda to dhadka hoga...

    jis se bhi gar prem agar ho..
    behtar hai sab batla den..
    ek tarfa na prem rahe wo..
    priyatam ko bhi jatla den...

    Sundar bhav...donon kavitaon main baat ek hai bas shabd alag hain..

    Deepak..

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