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लगने लगे हैं चेहरे अब अजीब अपने
भुलाएं कैसे उसे,दिल के जो करीब अपने
गिरा है वक़्त के पहलु से वो हसीं लम्हा
जुड़े बेतार थे जिससे कभी , नसीब अपने
किस का हो सहारा इस दर्द-ए-जिगर को
लदे हैं कांधों पे खुद सबके, सलीब अपने
इश्क का फलसफा समझ आएगा कैसे
ढूंढते हैं किताबों में उसे अदीब अपने
हो न जाए जुम्बिश नज़रों-औ -लबों की
बज़्म में बैठे हैं जानां कई रक़ीब अपने
पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने
नमस्कार जी...
जवाब देंहटाएंपहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने
वाह....
सुन्दर ग़ज़ल....
दीपक...