मंगलवार, 27 जुलाई 2010

हबीब अपने...

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लगने लगे हैं चेहरे अब अजीब अपने
भुलाएं कैसे उसे,दिल के जो करीब अपने

गिरा है वक़्त के पहलु से वो हसीं लम्हा
जुड़े बेतार थे जिससे कभी , नसीब अपने

किस का हो सहारा इस दर्द-ए-जिगर को
लदे हैं कांधों पे खुद सबके, सलीब अपने

इश्क का फलसफा समझ आएगा कैसे
ढूंढते हैं किताबों में उसे अदीब अपने

हो न जाए जुम्बिश नज़रों-औ -लबों की
बज़्म में बैठे हैं जानां कई रक़ीब अपने

पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार जी...

    पहुँच जाती है हर बात मेरी खुद ही वहाँ तक
    बिन कहे लफ्ज़ समझते हैं वो हबीब अपने

    वाह....

    सुन्दर ग़ज़ल....

    दीपक...

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