मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सच्चा झूठ.... !!!!

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मेरी
साँसों से
गुज़र कर,
मेरे
एहसासों को
छू कर
उतर
जाते हो
गहरे उनमें,
हो जाते हो
उन्ही
में से
एक....
बन कर
एक
अनछुआ
एहसास
हो जाते हो
करीब मेरे
कल्पनाओं में
मेरी ,
और हो
उठता है
चन्दन सा  
सुवासित ,
ये तन
और
मन मेरा
जीती हूँ
उस एहसास
में डूब कर
वे चंद 
खूबसूरत 
लम्हे
जो नहीं बनते
हकीक़त कभी ...
रोम रोम
देता है
गवाही 
होने की 
तुम्हारे
और
सतह पर
होने की
बात कह
बहकाते हो
तुम ,
मुझे नहीं
खुद को....
नहीं है
अपेक्षा
प्रतिदान की 
शब्दों में,
नहीं है
अनिवार्य
तुम्हारा
सोचना भी
मुझको ,  
खुश हूँ
पा कर 
तुम्हें,
मेरी
और
सिर्फ मेरी 
उस दुनिया में
दूर है जो
हकीक़त से ...
पर !!
हो तुम
किसी भी
हकीकत से
ज्यादा सच्चे ,
कैसे
झुठला
पाओगे 
इस सच को ??
बार बार
नकारने से
"सच "
कभी
"झूठ"
हुआ है क्या ???

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