शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

भाव कलम से छूट गए ......

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तुम पास नहीं हो जब  साजन
अक्षर तक  मुझसे रूठ गए...
ना छंद सजे ना गीत रचे
सब भाव कलम से छूट गए ....

बरखा,बादल और सावन भी
रास नहीं आये मुझको,
है कुंज आम का लदा हुआ
सुवास नहीं भाये मुझको,
हर शै में लगता है तेरी
यादों के अंकुर फूट गए
ना छंद सजे ना गीत रचे
सब भाव कलम से छूट गए ....

पाती तेरी पढ़ पढ़ कर मैं,
मन को अपने बहलाती हूँ..
दिल दर्द से तडपा जाता है,
मैं अंसुअन से सहलाती हूँ..
सपने ,जिनमें था साथ जिया,
वो,आँख खुली और टूट गए,
ना छंद सजे ना गीत रचे
सब भाव कलम से छूट गए ....


प्रीत संजो पल  पल मन में,
वारा तुझ पर ही तन -मन को ,
काल चक्र के परे सजन
हारा तुम पर ही कण कण को
नैनो में बस तुम ,ओ प्रियतम
निंदिया मेरी क्यूँ लूट गए...
ना छंद सजे ना गीत रचे
सब भाव कलम से छूट गए ....

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

मेरे मयखाने में ....


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मयकश तेरा यूँ आना, मेरे मयखाने में
बन बैठा इक अफसाना ,मेरे मयखाने में

जिस्मों की सुराही से,छलके है मय रूह की
नज़रें बनी पैमाना, मेरे मयखाने में

मय रूहों की खिंचती है,रूहों में ही ढलती है
रों रों हुआ रिन्दाना, मेरे मयखाने में

वस्ल तेरा,तेरी साक़ी का ,कुछ ऐसा हुआ जानम
ले थम गया ज़माना , मेरे मयखाने में

तार बज उठे हैं दिल के ,सांसें हुई झंकारित
लब गा रहे तराना , मेरे मयखाने में

सजदे में झुकी साक़ी,ये उसकी इबादत है
तुझको खुदा है माना , मेरे मयखाने में

मदहोश हुई है साक़ी,कैसा मिला ये मयकश
दिल हो गए दीवाने ,मेरे मयखाने में

मयकश हुआ है साक़ी,साक़ी भी अब है मयकश
बदला है यूँ फ़साना, मेरे मयखाने में ........

सम्भावना संवाद की ...

निम्नलिखित पंक्तियाँ एक ऐसी नायिका के मनोभाव है जिसका साजन बाहिर देश गया हुआ है । एक कोशिश की है अलंकार को प्रयोग करते हुए भावों को दर्शाने की ...



समेट साधन
संपर्कों के,
संजो ली
साँसों में
सम्भावना
संवाद की ...
सिमट आई
सेज पर
सहेज
सुवास
साजन के
साथ की ..

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

ध्यान

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नदी किनारे
ध्यान
लगा कर
बगुला जी
पाए
जाते हैं
स्वार्थ-सिद्धि
हेतु
मछली को
यूँ
भरमाये
जाते हैं...

ध्यान
लगाने का
हे प्राणी !!
करता तू
उपक्रम...
व्यर्थ समय
गँवा देता है
कैसा
तुझको भ्रम ??

वृथा विचार
मस्तिष्क
को तेरे
कर देते हैं
व्यस्त ...
ध्यान में
बैठा
सोच सोच कर
तू हो जाता
त्रस्त

साक्ष्य भाव से
से जब
पाया ,
आत्मसत्व
का
ज्ञान..
बिना चेष्टा
हर पल जैसे
घटित
हो गया
ध्यान

कृत्य
कोई हो
ध्यान
लगाओ
मन मानस को
ना
भटकाओ
ध्यान नहीं
जग
छोड़ के
जीना
ध्यान
तो है बस
निमिष में
जीना ....

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

'जाज्वल्यमान'

उड़ जाता है
शिशु चिरौटा
अपने
पंख पसार,
ऊर्जा भर
नन्हे तन मन में
लक्ष्य है
विकास विस्तार....

पल पल में छवि
उभरे उसकी
जनक जननी
दुलराते,
जीवन का यह
सहज उपक्रम है
खुद को यूँ
बहलाते ...

डगमग होता ,
सहम भी उठता
लख लख
विस्तृत
नभ को
ले संबल
साहस का
किन्तु ,
विजित करेगा
जग को ....

कभी अतिउष्ण
सूर्य
दमकेगा ,
हो अंधड़ का
प्रचंड
प्रवाह,
हर बाधा से
पार तू पाए
पूरी करने
अपनी चाह....

दिल पर प्रस्तर
रख कर
माँ ने
दूर किया
आँचल से,
विह्वल
जनक के
नयन
अविचल है ,
जो सदा रहे
चंचल से....


क्षोभ
बिछोह ऐसे
सौद्श्य का
क्षण भंगुर
होता है..
बनता कुंदन
तप के सोना ,
'जाज्वल्यमान'
होता है ..

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

आसान नहीं -( आशु रचना )

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ज़माने से छुप कर
कुछ लम्हे चुराना

तस्सवुर में जीना
जहां भूल जाना

मुंदी हुई पलकों
में ख़्वाब सजाना

सरगोशियाँ साँसों
की सुनना सुनाना

तपिश से लबों की
पिघलते से जाना

मदहोश आलम में
बहते ही जाना

ख़्वाबों से बाहिर
हक़ीकत निभाना

सच कहते हो ,जानम
आसान नहीं !!!!!

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

सम्प्रेषण-संबोधन का

खिल उठता है मन ये मेरा
सुन कर ' तुम' संबोधन तेरा

और धडकनें बढ़ जाती हैं
'तुम' जब 'तू' में ढल जाती है

दूर खड़ा पाती हूँ तुमको
'आप' बुलाते तुम जब मुझको

अल्हड हूँ नादाँ हूँ माना
पर हक़ तुम पर इतना जाना

नन्हा सा निश्छल इसरार
कर लूं तुमसे बाँह पसार

लफ़्ज़ों से तुम निश्चित करना
हृदय भाव संप्रेषित करना.....

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

अंजाम-(आशु रचना )

कुछ रिश्ते,
होते हैं
अस्तित्व में
अनंत से..
ना आगाज़
का पता
ना अंजाम
की फ़िक्र ...
घटित होते हैं
एक क्षण में ,
परे हो जाते हैं
काल की
सीमाओं से..
होते हैं पूर्ण
यहीं और
अभी
देने सार्थकता
जीवन की
उस नन्हे से
एक क्षण में ...

विदा के क्षण ....

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मेरी बेस्ट फ्रेंड जो पिछले २० सालों से मेरे साथ है..और उसके साथ जीवन के हर पल को जिया और विकसित किया है..कुछ सालों के लिए दुनियावी बातों के तहत दूसरे मुल्क जा रही है..मन भीगा हुआ है..दिल से जो उदगार निकले उन्हें कलमबद्ध कर दिया है....मेरी मन: स्थिति आपसे शेयर करके सुकून महसूस होगा ..

विदा के
इस क्षण में
भीग उठी है
पलकें
गुज़र रहे हैं
ज़हन की
गलियों से
वो सारे लम्हें
जो जिए हैं
हमने इक साथ
बरसों
महसूस किये
नामों से परे
छू कर
रूहों को

बांटे हैं हमने
छोटी बड़ी
खुशियाँ
छोटे बड़े
ग़म ,
ना था
कुछ भी
ज्यादा
ना है
कुछ भी
कम ..
वो गृहस्थी की
शुरुआत
और अनाड़ी
से हम ..

बिगाड़
बिगाड़ कर
खाने की
चीज़ें
बनाना
गलती कर
कर के
एक दूजे को
सिखाना
फिर बच्चों के
बचपन में
खुद को भुलाना
उन्ही के
कलापों में
खुद डूब जाना ...

वो सांझे से
सुख दुःख
वो सांझे से
चूल्हे..
वो पींगे
बढ़ाते
घंटों तक
हम झूले
वो सावनी रुत में
सड़क पर
भटकना
बारिश की बूंदों
संग समोसे
गटकना
चिल्लर के बदले
जो टाफी
मिली थी
आधी आधी
खा के
कैसी तृप्ति
मिली थी..

बनी तू थी
संबल
कुछ कमजोर
क्षण में..
स्पंदन
अबूझा है
कण
प्रति कण में

वो जीवन का दर्शन
निरखना
परखना
वो पल पल
में जीना
हर लम्हा
संवरना..
जब शब्दों
से पहले
हम सुन
लेते थे
बातें
वो आनंद
अपना
हम कैसे
बताते ....

चली जायेगी
तू
ये लम्हें
समेटे
संजो लूंगी
मैं भी
तेरी सब
ये भेंटे
पहिया
समय का
तो चलता रहेगा
जुदाई का
ये वक़्त
ढलता रहेगा
जुड़े मन हैं
अपने तो
दूरी कहाँ है..
नज़र में ही
रहने की
मजबूरी
कहाँ है ..
दुआएं हैं मेरी
सदा साथ तेरे
रहेंगे
तेरे हाथ
में
हाथ मेरे..
ये रिश्ता
बना है
समयातीत
हो कर
महकता है
साँसों में
बस प्रीत
हो कर ....

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

यात्रा....


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मंज़िल पाने इस जीवन पथ पर
पथिक असंख्य जुड़ा करते हैं
चल पड़ते संग डग दो डग यूँ
फिर राह निज की मुड़ा करते हैं

कुछ बढ़ जाते पथ पर आगे
कुछ पार्श्व में रह जाते हैं
बंधन कुछ हैं बंधने लगते है
सपने भी सज्जित हो जाते हैं.

थमना मत हो कर के गाफ़िल
साथ कोई आये ना आये
चलना सबको राह स्वयं की
जीवन जड़ ना होने पाए

नदिया-धारा संग पवन जुडी है
बिन बंधन के साथ निभाती
पवन छुए तो धार में लहरें
वेगवती हो कर इठलाती

साथ वही होता है पूरक
अस्तित्व जिसका काल अनन्त से
समदृष्टि से देखे प्रतिपल
हो बंधन मुक्त मिथ्या चक्रंत से

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

मोहब्बत की ग़ज़ल

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गिला कोई नहीं उनसे , यूँही दिल याद करता है
ज़माने से छुपा कर,इश्क की फ़रियाद करता है

घिरे हैं वो सरे महफ़िल ,टिकी हैं पर नज़र मुझ पे
तबस्सुम उनके लब का ,दिल मेरा आबाद करता है

तस्सवुर में ही जी लें हम , हसीं लम्हे मोहब्बत के
हकीकत में जहां कब,यूँ हमें आज़ाद करता है

सुनाई उनकी धड़कन ने, मोहब्बत की ग़ज़ल जब से
लबो से निकले लफ़्ज़ों का, ना दिल ऐतमाद करता है

खुदा मिल जाएगा खुद में,मोहब्बत में तो डूबो तुम
रे जाहिद क्यूँ हुआ गाफिल अमल बर्बाद करता है.

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

मोती ...

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तेरे
लबों के
सदफ़ ने
बना
दिया है
मोती ...
वरना
बरसात
अश्कों
की
किसी
मोल की
ना होती...

मैं उदास क्यूँ..!!

पूछे तुझसे मेरी हर सांस यूँ
मेरे हमनफ़स !! मैं उदास क्यूँ ..!

मेरी आँख का वो नूर भी
नहीं दे रहा है क्यूँ रौशनी
हैं मंजर सभी बुझे से क्यूँ
मेरे हमनज़र !! मैं उदास क्यूँ ..!

नहीं ताब है आफताब में
नहीं तान बुलबुल के गान में
नहीं सुर सधे हृदय से क्यूँ
मेरे हमनशीं !! मैं उदास क्यूँ ..!

गुमसुम सा क्यूँ हुआ हर लम्हा
तू है साथ फिर क्यूँ हूँ तन्हा
हैं रुके से अश्क़ पलक पे क्यूँ
मेरे हमसफ़र !! मैं उदास क्यूँ..!!

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

प्रेम के पथ पर ...

प्रेम के
पथ पर
चलने वाले
कदम ना
डगमग
होने पाए ....
प्रतिपल जुड़ती
आशाओं का
विश्वास
कभी ना
खोने पाए......

रिश्ते
दिल के
जब
जुड़ते हैं ,
शब्द -निशब्द
हो जाते हैं
तब ....
आँखों की
पुतली
में बसते ,
दृष्टि ओझल
भी होते
जब .....
दिया
जला के
रहो
प्रीत का
तिमिर
ना हावी
होने पाए...
प्रेम के
पथ पर
चलने वाले
कदम ना
डगमग
होने पाए ............

व्यर्थ क्यूँ
मन
हो जाता
विचलित ,
देख
खुली
आँखों से
हर पल.....
प्रेमाच्छादित
हृदय
हो रहा ,
उसमें भी
दिखता
तुझको
छल ....
जमी धूल
अंतस दर्पण
पर ,
प्रेम ही
उसको
धोने पाए ...
प्रेम के
पथ पर
चलने वाले
कदम ना
डगमग
होने पाए ........

महजबीं

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ख्वाबों में
डूबी
वो एक
महजबीं
झुकाती है
सजदे में
अपनी
जबीं.......

खुदा है कि
या है
महबूब अब
परस्तिश में
उसकी ना
कुछ है
कमी.........

लिए हाथ
हाथों में
बढ़ते चले
ना तू था
रूका
ना मैं थी
थमी ......

फुहारें
मोहब्बत की
ऐसी पड़ी
बरसा था
आस्मां
भीगी थी
ज़मीं ...

पाने की
हसरत थी
जिस
इश्क को
मिल गया
फिर भी
आँखों में
क्यूँ है
नमी...

कब हुए एक
हम दो
ना मालूम
हमें
मिटा
'मैं' 'तूँ'
का अंतर
मेरे हमनशीं.....

ख्वाबों में
डूबी वो एक
महजबीं
झुकाती है
सजदे में
अपनी
जबीं.......