मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महजबीं

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ख्वाबों में
डूबी
वो एक
महजबीं
झुकाती है
सजदे में
अपनी
जबीं.......

खुदा है कि
या है
महबूब अब
परस्तिश में
उसकी ना
कुछ है
कमी.........

लिए हाथ
हाथों में
बढ़ते चले
ना तू था
रूका
ना मैं थी
थमी ......

फुहारें
मोहब्बत की
ऐसी पड़ी
बरसा था
आस्मां
भीगी थी
ज़मीं ...

पाने की
हसरत थी
जिस
इश्क को
मिल गया
फिर भी
आँखों में
क्यूँ है
नमी...

कब हुए एक
हम दो
ना मालूम
हमें
मिटा
'मैं' 'तूँ'
का अंतर
मेरे हमनशीं.....

ख्वाबों में
डूबी वो एक
महजबीं
झुकाती है
सजदे में
अपनी
जबीं.......

5 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

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  2. पाने की
    हसरत थी
    जिस
    इश्क को
    मिल गया
    फिर भी
    आँखों में
    क्यूँ है
    नमी...

    बस इसी बात का तो पता नहीं चलता...जब मन खुशी से आच्छादित हो जाता है तो नमी अपने आप तैर जाती है....बहुत सुन्दर रचना...मन को भिगोती सी...

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  3. Hi..
    Liye hathon main hath badhte rahe hum..
    Na tum the ruke na main thi thami..

    Kya baat hai.. Kavita hamesha ki tarah.. Adwitiya..

    DEEPAK..

    जवाब देंहटाएं
  4. Hi..
    Liye hathon main hath badhte rahe hum..
    Na tum the ruke na main thi thami..

    Kya baat hai.. Kavita hamesha ki tarah.. Adwitiya..

    DEEPAK..

    जवाब देंहटाएं
  5. पाने की
    हसरत थी
    जिस
    इश्क को
    मिल गया
    फिर भी
    आँखों में
    क्यूँ है
    नमी...
    फिर क्यूँ है नमी...बस यही सवाल तो अनुत्तरित रह जाता है..बहुत खूब ...सुन्दर पंक्तियाँ

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