बुधवार, 30 नवंबर 2011

बेअल्फाज़

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नींद की
अतल गहराईयों में,
झोंका खुशबुओं का
बना रहा था
दीवानी मुझको ,
जागी थी मैं
तेरे होने के
एहसास से,
हुए थे महसूस
कुछ बोल
सरकते हुए,
तेरे लबों से
और
सरगोशियाँ करते
उतर गए थे
तखलीक में मेरे
बन कर
एक ग़ज़ल ..

दोहराते हुए
अपने वजूद में ,
किया था निश्चय
कागज़ पर
उकेरने का उनको ,
और डूब गयी थी
फिर से
अँधेरी रात के
उजालों में,
ओढ़ कर
ओढ़ा कर
अपनी गुलाबी चादर,
लिए हुए
खुशनुमा एहसास
सृजकता का ....

ना जाने क्यों
दिन के उजाले के
साथ ही
खो गए हैं
वो अलफ़ाज़
जो संजोये थे
आधी नींद में
ना जाने
किस कलम से !!

जिया था शिद्दत से
जिसको
रात की बेखुदी में ,
जिए जा रही हूँ मैं
हर नफ़स
उसी ग़ज़ल को ,
करते हुए
एक नाकामयाब सी
कोशिश
बज़रिये कलम
कागज़ पर
समेटने की उसको


करो ना महसूस
ए हमदम !
गूंज रही है
इस ख़ामोशी में
मौसिकी
उस ग़ज़ल की
उतरी थी जो
तुम्हारे लबों से
वजूद में मेरे
हो कर फ़क़त
बेअल्फाज़ !


तखलीक-सृजन





रविवार, 27 नवंबर 2011

कालजयी कृति....

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सर्द रातों के
सन्नाटे में
मंदिर की घंटियों सी
प्यालियों की खनक,
सौंधी सौंधी
पहचानी सी महक
और
गर्म चाय की
भाप के
मासूम बादलों के
दरमियाँ
गुजरतें हैं कितने ही
पन्ने लिखे गए
तुम्हारी कलम से,

पहुंचते हैं
मेरी नज़रों तक
हो कर तुम्हारे हाथों से,
उतर जाते हैं एहसास
गहराई तक
वुजूद में हमारे ..

मुकम्मल होती हैं
ना जाने कितनी
दास्तानें
जानी
अनजानी
और
संग अंजाम पर
पहुँचती रात के,
नए दिन के
आगाज़ पर
मनता है एक जश्न
और
होती है घटित
कोई कालजयी कृति....





शनिवार, 26 नवंबर 2011

करामात ...

चलती नहीं कलम 
ना जाने क्या बात है, 
हैं विलुप्त शब्द सारे 
भावों की बस बरसात है....

कैसे समा लूँ ,बोल !
सीमित शब्दों में धारा को,
तड़पती रूह है मेरी
कि तोडूं तन की कारा को,
बिखेरूं आज कण कण में
मिला जो मुझको तेरे साथ है....

ना जाने कब मिले थे हम
ना जाने कब के बिछुड़े है ,
पहचाना रूह ने रूह को
भले ही बदले जो कपडे हैं
हम जन्मों से  वे ही संगी
कुदरत की ही करामात है

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अनासक्त प्रेम



समझ कर
मेरे प्रेम को
आसक्ति ,
समझ लेते हो
मेरी अनासक्ति को
विरक्ति मेरी
और
डोलते रहते हो
आसक्ति
और
विरक्ति के
इन दो ध्रुवों के मध्य
पेंडुलम की भांति

जबकि !
होती हूँ मैं
सदैव स्थिर
अपने अनासक्त प्रेम में ,
स्वयं प्रेम हो कर

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

रहस्यमयी



कभी होता है रहस्य
मेरी खनकती हंसी में ,
तो हो जाता है
रहस्यमय
कभी मौन भी मेरा

कभी कोई पूछने
लगता है रहस्य
मेरे ना हंसने का
और कोई
ढूँढने लगता है सिरा
मेरे अनवरत बोलने के
सिलसिले का ...

पूछा है कभी क्या
बूंदों से ,बारिश की
क्यूँ बजती हैं
घुंघरुओं की तरह !!
या
क्या फुसफुसा जाती है
हवा चुपके से
पत्तों के कानों में !!
और
क्यूँ हो जाती है
अकस्मात शांत ,गंभीर
वो कल कल करती
उन्मादित ,
वाचाल नदिया !!

कर लो न
स्वीकार ,
मेरा मौन ,
मेरी हंसी ,
मेरे आंसू
और
मेरी बातें
सभी हो सकते हैं
निरर्थक ,
निरूद्देश्य
किन्तु
सहज
स्वयं के ही आनंद में
बिलकुल जैसे ये प्रकृति ...

हूँ ना मैं भी तो
रहस्यमयी
इस प्रकृति की ही तरह ..!!!

सोमवार, 14 नवंबर 2011

वो नखलिस्तान ....


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सुबह की
किरणों के
नर्म एहसास में
होती है जब
तेरे पैग़ाम की
उम्मीद ,
करता है दिल
हर सहर का
इस्तकबाल
हो कर
शादमां
संग 
नयी 
तवानाई के

आँख खुलने के
साथ ही
तेरे पयाम की
नाउम्मीदी
दे जाती है
उदासियाँ मुझको
एक और नए
सहरा से
कुशादा दिन को
अनजाने से
नखलिस्तान की
खोज में
यूँही गुज़ार देने का
एहसास लिए ...

क्यूँ भूल जाती हूँ
उस लम्हा मैं
कि पोशीदा है
वो
नखलिस्तान तो
मेरे ही अंदर
मेरी ही रूह में
अज़ल से-
अबद तक !!!!


मायने -
इस्तकबाल-स्वागत 

शादमां -खुश ,प्रसन्नचित

तवानाई-शक्ति और सामर्थ्य
सहरा-रेगिस्तान

कुशादा-फैला हुआ ,विस्तृत

नखलिस्तान -oasis

पोशीदा -छुपा हुआ

अज़ल-सृष्टि का आरम्भ ,अनंतकाल

अबद-अनंत काल

रविवार, 13 नवंबर 2011

ऐसा कुछ है नहीं कि उम्र भर रोया जाये


कितने दिन दिल को ग़मों में यूँ डुबोया जाये 
ऐसा कुछ है नहीं के उम्र भर रोया जाए 

बेसबब अश्क बहा कर , इन्हें  बरबाद ना कर 
मोल इनका है गर ज़ख्मे ग़ैर को धोया जाए 

खुशियाँ बिखरी हैं हर सिम्त  न रह अब गाफ़िल 
होशमंद हो इन्हें लम्हों   में पिरोया जाए 

बेगानी हक़ीक़त सही , हैं ख़्वाब तो अपने 
तेरे शाने पे हो सर ,चैन से सोया जाए 

वक़्त आने पे मिलेगा ,मुकद्दर में लिखा भी 
ज़मीने ख़्वाब पे तदबीर का बीज तो बोया जाए 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

काश ऐसा तेरा नज़रिया हो ..



पिघल जाती है दूर
पहाड़ों पर बर्फ
चाय की प्याली से
उठती भाप की
गर्माहट से ,
दूरियां ही
शायद
इस आगोश का
ज़रिया हो ...

उठते हैं
तूफ़ान
चाय की प्याली में
देखो ना ,
मिटटी का
यह बर्तन
मानो
कोई दरिया हो ...

खयाल है मुझे
तेरी
तलब-ओ-जरूरियात का
मेरे हमदम ..
काश ऐसा
तेरा नज़रिया हो ....













बुधवार, 9 नवंबर 2011

दर्द

न वाबस्ता रहा
जिस दर्द से
कभी
दिल ये मेरा ,
वो मेरी नज़्मों के
हर लफ्ज़ में
नज़र आता है.....

हूँ शुक्रगुज़ार तेरी ,
मुझको
भुलाने वाले ,
कि यही दर्द तो
गज़लों में
असर लाता है.....

सोमवार, 7 नवंबर 2011

मेरा वजूद भी तुम हो

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मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...
निगाह-ए-नाज़ भी तुम हो ,
रौनक-ए-जमाल भी तुम ..

उलझते हो कभी ,जुल्फों के
पेंच-ओ- ख़म बन कर
छलक भी पड़ते हो नज़रों में
जाम-ए-ग़म बन कर
सुकून होते हो दिल का
मेरा ज़लाल * भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..
(ज़लाल=क्रोध)

हुआ करते हो सदा साथ
बेआवाज़ क़दमों से
गुंजार देते हो धड़कन को
अपने नगमों से
मेरी हंसी में हो बसते ,
मेरा मलाल भी तुम ..
मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...

जियूं मैं प्यार के शिकवे ,
शिकायतें तेरी ,
हैं  मेरी जान ये भी तो
इनायतें तेरी
छुपा जवाब हो मुझमें,
मेरा सवाल भी तुम ..
मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...

है तेरा साथ तो
रोशन सभी फिजायें हैं
बहारें महकी हुई
दम तोड़ती खिजाएँ हैं
मेरी तारीकी-ए-शब हो
मेरा जलाल* भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..
(जलाल-तेज,प्रताप )

जुदा से दिखते हैं दो तन
निगाह-ए-दुनिया में
मगर वाबस्ता नहीं रूह
अहल-ए- दुनिया से
तुम्ही हो हिज्र में शामिल
मेरा विसाल भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..





बुधवार, 2 नवंबर 2011

शून्यता

प्रकाश ,
मिल कर सात रंगों से
दिखता है रंगविहीन ,
अवस्था शून्यता की
होती है घटित
शायद इसी तरह से ...

विद्यमान होते हुए भी
हर रंग के
दिखता है
सिर्फ
शुभ्र ,श्वेत प्रकाश
अपने शाश्वत स्वरुप में
नहीं मिलता जब तक
बाहरी कारक उसको
और
गुज़रते ही
अनुकूल माध्यम से
खिल जाता है
हर एक रंग
हो कर
परावर्तित

नहीं है सम्पूर्ण
इन्द्रधनुष
किसी भी
एक रंग की
अनुपस्थिति से .
चाहे तीव्रता हो
लाल रंग की
या फिर
असीम शान्ति
नीले रंग की ..

होती है महत्ता
हर रंग की
साथ उसकी पूर्णता के
रहते हुए
प्रकाश के
अस्तित्व में भी
और
उसकी शून्यता में भी ...