नींद की
अतल गहराईयों में,
झोंका खुशबुओं का
बना रहा था
दीवानी मुझको ,
जागी थी मैं
तेरे होने के
एहसास से,
हुए थे महसूस
कुछ बोल
सरकते हुए,
तेरे लबों से
और
सरगोशियाँ करते
उतर गए थे
तखलीक में मेरे
बन कर
एक ग़ज़ल ..
दोहराते हुए
अपने वजूद में ,
किया था निश्चय
कागज़ पर
उकेरने का उनको ,
और डूब गयी थी
फिर से
अँधेरी रात के
उजालों में,
ओढ़ कर
ओढ़ा कर
अपनी गुलाबी चादर,
लिए हुए
खुशनुमा एहसास
सृजकता का ....
ना जाने क्यों
दिन के उजाले के
साथ ही
खो गए हैं
वो अलफ़ाज़
जो संजोये थे
आधी नींद में
ना जाने
किस कलम से !!
जिया था शिद्दत से
जिसको
रात की बेखुदी में ,
जिए जा रही हूँ मैं
हर नफ़स
उसी ग़ज़ल को ,
करते हुए
एक नाकामयाब सी
कोशिश
बज़रिये कलम
कागज़ पर
समेटने की उसको
करो ना महसूस
ए हमदम !
गूंज रही है
इस ख़ामोशी में
मौसिकी
उस ग़ज़ल की
उतरी थी जो
तुम्हारे लबों से
वजूद में मेरे
हो कर फ़क़त
बेअल्फाज़ !
तखलीक-सृजन