बुधवार, 29 सितंबर 2010

सौतन.....


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याद में तेरी गिन गिन तारे
मैंने हर रात बितायी ...
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

वशीकरण जाने वो ऐसा
ज्यूँ जादू हो बंगाल का
प्रीत छुपा ली मैंने जग से
ज्यूँ धन कोई कंगाल का
सपनो में ही पा कर तुझको
मन ही मन थी मैं हर्षाई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

हर वो शै हो गयी है सौतन
जिसने तुझको घेर लिया है
पलकों से पथ चूमा तेरा
पर तूने मुंह फेर लिया है
मजबूरी जानूँ मैं तेरी
फिर क्यूँ आँख मेरी भर आई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

दुनिया के बेढंग झमेले
मिलन की राहों में रोड़े हैं
बिछोह है अपना सदियों जैसा
संग साथ के दिन थोड़े हैं
स्पर्श की तेरे याद दिलाती
जब जब छू जाती पुरवाई
मोह पड़ा तुझ पर सौतन का
मेरी सुध तूने बिसराई ...

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जिगसॉ पज़ल ....

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जिगसॉ पज़ल के
सैंकडों टुकड़ों की तरह
हो गए हैं विचार मेरे ,
सब बेतरतीब से
बिखरे बिखरे ...
थक गयी हूँ
उनको
सही खांचों में
फिट करते करते...
पर
तस्वीर भी तो नहीं
मेरे पास
कि
जिसे देख
लगा पाऊं
इन टुकड़ों को
उनकी सही जगह पर ,

तुम आओ तो
साथ में
इस पहेली की
तस्वीर लेते आना ..
मिल के
जोड़ देंगे
सारे टुकड़ों को
और
मुक्कमल हो जायेगी
ये बिखरी हुई तस्वीर



सोमवार, 27 सितंबर 2010

बाढ़....

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कल तक
एक दूसरे के
खून के प्यासे
बुधिया और हरिया,
आज
सिमटे बैठे हैं
अपने परिवार
और
ढोर डंगरों को
साथ लिए
काकोया के
पुल पर
दो हाथ
मिली जगह में.
बंधाते हुए ढाढस
एक दूसरे को
कितने सालों बाद
दोनों भाई
मिल जुल कर
रोटी खा रहे हैं...


इस बार
उनकी
दुश्मनी
की वजह
को
रामगंगा
बहा जो ले गयी.......



शनिवार, 25 सितंबर 2010

प्रीत का देखो रंग ....


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नज़रों ने छू लिया तुम्हारी
देह का हर इक अंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग

नैनो में ज्यूँ छलक उठे हैं
मादक मदिरा के प्याले
अधर हुए रस भीगे अम्बुज
मधुकर डेरा डाले
रोम रोम से फूट रही है
मिलन आस उत्तुंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....

बीते यौवन पर छाई है
मदमस्त सी कोई बहार
नयी कोंपलें फूटी हैं
जब बरसी प्रेम फुहार
हर पल नभ में खुद को पाऊँ
मिले जो तेरा संग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....

मैंने तुम पर हार दिया है
मन भी तन भी अपना
सहज समर्पित तुमको मैंने
किया आज हर सपना
प्रेम किया तुमको जब अर्पण
मन में छाई उमंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग

तेरी चाहत ने मुझको यूँ
दीवानी कर डाला
जोगन बन कर जपूँ निरंतर
तेरे नाम की माला
तुमने देखे प्रेम अनेकों
मेरा अपना ढंग
मन उपवन खिल उठा बासंती
प्रीत का देखो रंग ....




शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कुछ यूँही ....

कभी कुछ पल के लिए कुछ एहसास मन में आ जाते हैं॥उन्ही को शब्दों में ढाला है..


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प्राथमिकता ..

मेरी
प्राथमिकताओं में
सर्वोच्च
होना
तुम्हारा,
प्रतिपादित
तो नहीं
करता ना ,
तुम्हारी
प्राथमिकताओं में
मेरा
सर्वोच्च
होना ......

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नज़र .....

देखा है
जबसे
खुद को,
तेरी नज़र
से
जानम ,
आईना भी
हैरान है
कि कौन हैं
ये
खानम ॥:)

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इंतज़ार .....

दिखता नहीं
खत्म सा
सिलसिला
इंतज़ार का ....
सुना था ,
अब जान लिया ,
है ये ही
सिला
प्यार का


गुरुवार, 23 सितंबर 2010

स्वच्छंद सहचर

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उस दरख़्त की
सबसे ऊंची
टहनी पर
रुके थे कभी
हम तुम ..
ठहर गए थे
सांस लेने को
उड़ते उड़ते
असीम
आकाश में

तुम्हारी
मासूम नज़रें
अधखुली चोंच
और
कांपते हुए पंख...
समेट लिए थे
मैंने
अपनी
नन्ही छाती में ...
दुबक गयी थी
तुम भी
भूल कर
आकाश के
असीम
विस्तार को..
समा गयी थी
मेरे पंखों में
महसूस कर
उनकी
गर्माहट को
पलों में
जी लिया था
हमने
जन्मों को जैसे ..
किन्तु इर्ष्यालू था
वह साथी चिड़ा...
उड़ते हुए
आ बैठा
सीधा
हम दोनों के
मध्य
करते हुए
तीव्र आघात ...
संभाल नहीं पायी
वह नाजुक सी टहनी
वह
अप्रत्याशित
प्रहार ...
छूट गयी
मेरे पंजों से
वह धरती
जिस पर
बो रहा था
मैं
अपनी
मोहब्बत के
बीज ....
लड़खड़ा के
संभला मैं ,
उड़ते हुए
देखा था
तेरी ओर
और
विवशता
तेरी नज़रों की
भांप
उड़ चला था
अनजानी दिशा को
गर्वोन्मत चिड़ा
बढ़ा था
तेरी ओर
अपनी विजय पर
इतराते हुए
किन्तु
क्षुब्ध सी
तू भी
उड़ चली थी
किसी
अनजानी दिशा में

कुछ पलों का
वह साथ
देता है
प्रेरणा
उड़ने की
मुझको
कि
फिर
किन्ही लम्हों में
सांस लेने रुकेंगे
हम तुम
ऐसी ही किसी
टहनी पर


और जन्मों से देखो..
उस दरख़्त की
वो शाख
लचकती है
आज भी ,
उन पलों की
मादकता में
करते हुए
इंतज़ार
फिर
किन्ही
हम जैसे
स्वच्छंद सहचरों का ....



बुधवार, 22 सितंबर 2010

घुँघरू..(आशु रचना )

एक ऐसे पति की मनोव्यथा जिससे किसी कमजोर क्षण में अपनी बीवी का क़त्ल हो गया ..जिसे वह बेहद प्यार करता था...

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मैं
सौ-सौ बार
हुलस उठता था,
घुंघरू की तरह
झंकारती
जिसकी
आवाज पर

भूल जाता था
थकन
दिन भर की ,
जिसकी
मुस्कुराहट पर

खिलखिलाती थी
हंसी
जिसकी
घर भर में
गुंजार कर

भीग भीग
उठता था मन
उसकी आँखों में
डूब कर

क्यूँ ना
संभाल पाया
मैं
खुद को
बस
इक
कमजोर
क्षण पर

वो
जिसके
खून के छींटे
आज भी
दर्ज हैं
मेरी आस्तीन पर,

उसकी
पायल का घुंघरू
दिला जाता है
एहसास
उसके वजूद का
मेरी शर्ट की
जेब में
खनक कर

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ए मेरे आवारा बादल..!!

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संजो प्रीत सागर की मन में
सहेज अंश उसका निज तन में
दूर दूर तक उड़ के जाना
पूरब से पश्चिम अपनाना
कभी सिमटना कभी बिखरना
कभी बरसना कभी छितरना
नहीं बंधे हो तुम बंधन में
क्षुब्ध नहीं होते क्रंदन में
क्या होती तुमको भी प्रीत
कहीं मिला तुमको क्या मीत
जहाँ था चाहा तुमने रुकना ?
किसी की अलकों में जा छुपना ?
किन्तु नियति नहीं तुम्हारी
तुम उड़ते हो दुनिया सारी
ठहर भला कैसे जाओगे
कैसे प्रीत में बंध पाओगे
तुमने बस देना ही जाना
तप्त धरा की प्यास बुझाना
कभी प्रचंड सूरज से लड़ कर
छाया बन जाते हो बढ़ कर
पल पल रूप है यूँ अनजाने
आवारा सब तुमको माने .......


शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

'हम्म'.....


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उमगता हुआ
आता हूँ मैं
समेटे
हृदय में अपने
कहने को तुमसे
हज़ार शब्द ,
लाखों बातें ,
करोड़ों सपने
और
अपने ही
अंतरमन की
घुटती चीखें
तुम तक
पहुँचाने को ....
पुकारता हूँ तुम्हें
और तुम्हारा
वो मासूम सा
"हम्म''
भुला देता है
मुझे सारे
शब्द
बातें
सपने
और
चीखें बदल जाती हैं
इस
गहन स्वर के
संगीत में
जो बहने लगता है
तुम्हारे मन से
मेरे मन की ओर
और
ठगा सा
खड़ा रह जाता हूँ मैं ..
कुछ बोल नहीं पाता ...........
क्या है इस 'हम्म' में ???

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

पूंछ का दर्द..!!!!

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कितना
नाज़ुक जुडाव
है ना
छिपकली
और
उसकी पूँछ
के दरमियाँ ..
हल्के से ही
आघात से
पूंछ
अलग
हो जाती है
और
दर्द का
एहसास
तक नहीं होता
उससे
अब तक
जुडी हुई
छिपकली को..
जुदाई की
तड़प से
तब तक
छटपटाती है
पूंछ
जब तक
उसमें
एक भी
कतरा
जान
होती है
बाकी
और
छिपकली
उस
जुदा हुई
पूंछ से
बेखबर
पा लेती है
एक नयी
पूंछ
कुछ ही
दिनों में ...


मैंने
महसूसा है
अपने रिश्ते में
उस पूंछ का दर्द ............

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हश्र लम्हों का.....

# # #
प्रतीक्षा
अपेक्षा
समीक्षा
परिभाषा
परीक्षा से
उकता कर
लम्हों में
जीने की
आरज़ू
रखने वाले
जब
अकस्मात
पाए
लम्हों को
जीने के
बजाय ,
प्रतीक्षा को
नजरंदाज
कर
अपेक्षा को
ठुकरा कर
परिभाषाओं की
समीक्षा कर
परीक्षा
लेने लगते हैं
तो
लम्हों के
इस हश्र पर
रो देती हूँ मैं....

सोमवार, 13 सितंबर 2010

अपरिवर्तित

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बदलाव
नज़र आते हैं
जब सोचते हैं
हम
बीते हुए पल ..
या
हमारी चाहतों से
अलग होते हैं
आने वाले पल ..

देखना
समय से पीछे
या
फिर आगे
देता है एहसास
परिवर्तनशीलता का ..
और
हो जाती है
शिकायत
अनकही सी
मन में ,
"तुम अब पहले जैसे  नहीं रहे ! '
या
उम्मीद इस वादे की
"तुम हमेशा ऐसी ही रहोगी ना ! " ...

संभव नहीं है
इन कसौटियों पर
खरा उतरना
किसी का भी
किन्तु
कसौटियों से परे
होता है महसूस
एक
कहा-अनकहा साथ
बिना किसी वादे
और
घोषणाओं के
घुला हुआ जैसे
अपने ही सत्व में ...

सिर्फ वही है
अपरिवर्तित
इस पल पल
परिवर्तित
दिखने वाली
जिंदगी में .....

रविवार, 12 सितंबर 2010

किनारे.....


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दो किनारों को
जोड़ती है
संवेदनाओं की
नदी ....
निरन्तर
बहती ,
उमगती ,
उफनती
नदी
घुला लेती है
संवेदनाओं के
जल में
अंश किनारों का...
घुल कर
नदी के जल में
खो कर अपने
पृथक अस्तित्व को
हो जाते हैं एकमेव
वो हमसफ़र ...
कर नहीं सकता
विभाजित उन को
कोई
अब
दांयें या बांयें
किनारे में
और यूँ
मिल जाते हैं
दो किनारे ,
होते हुए
अभी भी
नदी के
दोनों छोर पर
अपने अपने
अस्तित्व के साथ
और
दुनिया कहती है
किनारे कभी मिलते नहीं.....!!!!

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

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ना जाने मुझको आज सजन
तुम याद बहुत क्यूँ आते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

धड़कन धडकन में गूँज रही
बातें मुझसे जो कहते थे
अक्षर अक्षर में डोल रही
जिस प्रीत में हम तुम बहते थे
पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

लम्हों में युग जी लेते थे
कभी युग बीते ज्यूँ लम्हा हो
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
दिन मजबूरी के थोड़े हैं
तुम आस यही दे जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

हर सुबह का सूरज आशा की
चमकीली किरने लाता है
सांझ की लाली में घुल कर
इक प्रेम संदेसा आता है
सूरज ढलने के साथ ही तुम
बन चाँद मेरे आ जाते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो .......

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

क्या है ये ..!!!!

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जागती आँखों में
बन के सपना
उतर आने से
तुम्हारे
भारी हो गयी
पलकें
खुलती नहीं
घुल गए हैं
लाल डोरे
तुम्हारे
प्रेम की
मादकता के
उनमें ...
तरलता
एहसासों की
छलक छलक
जा रही है
और .....

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ये मुआ डॉक्टर कहता है कि 'आई फ्लू ' है ...:)

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

अंतिम छवि....

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हर दिन
तुम्हारे
दफ्तर जाते समय
मेरा तुम्हें
मुस्कुराते हुए
विदा करना
दिनचर्या सी है
तुम्हारे लिए ....
लेकिन
मन की
तमाम
ऊहापोहों के बावजूद
मैं
मुस्कुरा के देती हूँ
विदा तुमको
कि
कहीं किसी दिन
लौटने पर तुम्हारे
गर मैं ना मिलूं
तो
अंकित रहे
हृदय में तुम्हारे
मेरी
मुस्कुराती हुई
अंतिम छवि ......



ज़िन्दगी..!! मिलवा दे मुझको मुझी से ..

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निरंतर
खोजती हूँ
खुद को
क्या हैं मेरी
चाहते
आशाएं
सपने ...
गुज़र चुकी है
वो रुपहली उमर
होते हैं दिन
जब सोने के
और
चांदी की रातें
सुना है ऐसा मैंने..
सोने की तपन
और
चांदी की शीतलता
महसूस किये बिना
भीगे काष्ठ सा ही
सुलगता रहा
ये तन
और
मन मेरा ..
फिसलते जा रहे हैं
पल यूँ वक़्त के
जैसे मुठ्ठी से रेत ....
रेत का अंतिम कण
फिसलने से पहले
एक बार ,
बस एक बार ,
ज़िन्दगी !!!!
मिलवा दे
मुझको
मुझी से तू .....

जोगन और ज्ञानी....


जोगी...(आशु रचना )

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जोगन के प्रेम पर ज्ञानी का उवाच :

निर्मोही संग प्रीत लगायी
क्यूँ अपनी सुध बुध बिसराई
वो तो है इक रमता जोगी
उसे डोर कोई बाँध ना पायी

मन का मौजी वो मतवाला
राम नाम की जपता माला
तू पगली दिल दे कर उसको
क्यूँ पीती है विष का प्याला

प्रेम तेरा जो समझ ना पाए
तू क्यूँ उससे आस लगाये
प्रेम तेरा थाती है तेरी
क्यूँ कुपात्र पर इसे गंवाए

जोगन के भाव...

मैंने प्रेम किया है जिन से
नहीं कामना प्रतिफल की उनसे
प्रेम नहीं है बंधन कोई
मन की डोर जुड़ी है मन से

पात्र देख कर चयन करे जो
प्रेम नहीं कर सकता है वो
प्रेम तो है बस एक भावना
छूती है जो अंतर्मन को

बरसात ....


######

एक नाज़ुक सा
स्पर्श
एक स्नेहिल
निगाह
मन से मन की
छुअन
एक गर्माहट का
एहसास ..
काफी है ,
अवसाद के बादलों को
बरसाने के लिए ....
बरसात के बाद
निखरा निखरा सा
ये समां ...
पेड़ कुछ ज्यादा
हरे
आसमां कुछ ज्यादा
नीला
मन की सूखी धरती
भीग उठती है
इस बरसात में
और
इस गीली धरती
में
खिलते हैं फूल
हमारी
चाहतों के
हमारे
प्रेम के
और
हो जाते हैं
दिन
फिर
खुशगवार से
रातें
शायराना सी ....

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी ....

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दिल की बेचैनी निगाहों से बयाँ होने लगी
गुफ़्तगू कुछ यूँही अपने दरमियाँ होने लगी

अश्क तो दिल में गिरे थे, फिर असर ये क्या हुआ?
क्यूँ नमी पलकों पे आकर के अयाँ होने लगी

अल सवेरे से ही उसने ख़्वाब को परवाज़ दी
शाम होते ही तलाश-ए-आशियाँ होने लगी


ज़िंदगी के रास्ते ,ले कर चले हैं किस तरफ
दिन गुज़रता हैं कहाँ और शब कहाँ होने लगी

तेरी हसरत में रहे हम ,सोच ना पाए कभी
इश्क की राहों में क्यूँ,नाकामियाँ होने लगी


हमसफ़र हो तुम तो मेरा दिल बहुत मग़रूर है
धडकनें बेताब हो कर बदगुमाँ होने लगी


है अँधेरा जीस्त के हर मोड़ पर तो क्या हुआ
रौशनी मेरी नज़र की अब वहाँ होने लगी