शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जोगन और ज्ञानी....


जोगी...(आशु रचना )

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जोगन के प्रेम पर ज्ञानी का उवाच :

निर्मोही संग प्रीत लगायी
क्यूँ अपनी सुध बुध बिसराई
वो तो है इक रमता जोगी
उसे डोर कोई बाँध ना पायी

मन का मौजी वो मतवाला
राम नाम की जपता माला
तू पगली दिल दे कर उसको
क्यूँ पीती है विष का प्याला

प्रेम तेरा जो समझ ना पाए
तू क्यूँ उससे आस लगाये
प्रेम तेरा थाती है तेरी
क्यूँ कुपात्र पर इसे गंवाए

जोगन के भाव...

मैंने प्रेम किया है जिन से
नहीं कामना प्रतिफल की उनसे
प्रेम नहीं है बंधन कोई
मन की डोर जुड़ी है मन से

पात्र देख कर चयन करे जो
प्रेम नहीं कर सकता है वो
प्रेम तो है बस एक भावना
छूती है जो अंतर्मन को

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