बुधवार, 22 सितंबर 2010

घुँघरू..(आशु रचना )

एक ऐसे पति की मनोव्यथा जिससे किसी कमजोर क्षण में अपनी बीवी का क़त्ल हो गया ..जिसे वह बेहद प्यार करता था...

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मैं
सौ-सौ बार
हुलस उठता था,
घुंघरू की तरह
झंकारती
जिसकी
आवाज पर

भूल जाता था
थकन
दिन भर की ,
जिसकी
मुस्कुराहट पर

खिलखिलाती थी
हंसी
जिसकी
घर भर में
गुंजार कर

भीग भीग
उठता था मन
उसकी आँखों में
डूब कर

क्यूँ ना
संभाल पाया
मैं
खुद को
बस
इक
कमजोर
क्षण पर

वो
जिसके
खून के छींटे
आज भी
दर्ज हैं
मेरी आस्तीन पर,

उसकी
पायल का घुंघरू
दिला जाता है
एहसास
उसके वजूद का
मेरी शर्ट की
जेब में
खनक कर

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