रविवार, 12 सितंबर 2010

किनारे.....


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दो किनारों को
जोड़ती है
संवेदनाओं की
नदी ....
निरन्तर
बहती ,
उमगती ,
उफनती
नदी
घुला लेती है
संवेदनाओं के
जल में
अंश किनारों का...
घुल कर
नदी के जल में
खो कर अपने
पृथक अस्तित्व को
हो जाते हैं एकमेव
वो हमसफ़र ...
कर नहीं सकता
विभाजित उन को
कोई
अब
दांयें या बांयें
किनारे में
और यूँ
मिल जाते हैं
दो किनारे ,
होते हुए
अभी भी
नदी के
दोनों छोर पर
अपने अपने
अस्तित्व के साथ
और
दुनिया कहती है
किनारे कभी मिलते नहीं.....!!!!

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