गुरुवार, 22 नवंबर 2018

बंजारन ...


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देखा था
उसे सड़क किनारे
चूल्हा फूँकते
नज़र आए थे
आँच से तपे
ताम्बई चेहरे पर
सुर्ख हुए रुख़्सार
जगमगा रहे थे
जैसे उतर आए हों
अनगिनत आफ़ताब
झिलमिल पसीने की बूंदों में....

चाँदी की हँसली के पीछे से
गले की फूलती नसें
खा रही थी बल
शिव के गले में लिपटे
नागों सी...

चाँद ,तारे ,फूल बूटे
शंख,त्रिशूल,चक्र,डमरू
किसुन, गनेस के
गुदनों से सजे
अंगों पर उसके
दिख रहा था
उसका
और
उसके 'वो' का नाम भी
यूँ लगता था
ज्यूँ उकेर दिया है
बदनिन* ने
सारा ब्रह्मांड
इर्द गिर्द उसके संसार के ...

बांसों पर टिका
प्लास्टिक की चादर से बना घर
अलमुनियम के टूटे मुचे बर्तन
हाथ के कढ़े सिले कपड़े
कुछ साबुत
कुछ फटेहाल,
गुदड़ी में सो रहा था
उसका नन्हा लाल
देख लेती थी वो बरबस
भर भर निगाह
मुस्कुराते हुए मासूम को
और चमक जाता था
एक मुकम्मल एहसास
जीवन से भरी उन आँखों में....

बदनिन-गोदना गोदने वाली

रविवार, 18 नवंबर 2018

पुष्पों से ही सीख सकें


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चंचल पवन की तान पर
गुनगुना रहे हैं भँवरे
खिली है कली स्पर्श पाकर
फूल भी है संवरे संवरे ....

मदमस्त मधुकर मधुपान से
डोल रहे हैं डाली डाली
कमसिन कलियाँ किलक कर
झूम रहीं हो कर मतवाली ....

दिल है मेरा भ्रमर की गुंजन
गुनगुनाता तेरे लिए
फूल खिला दूँ हर शै में मैं
जो मुस्क़ा दे तू, मेरे लिए....

गुनगुन गूंज गयी बगियन में
महक उठा प्रत्येक कण
अलि अभिसार से पूर्ण हुआ
गुंचों का हर एक क्षण...

बिखर गए जी कर यूँ जीवन
देकर सुगंध और नवरंग
पुष्पों से ही हम सीख सकें 
समग्र जीने के सहज ढंग ......

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

किया है अमृत का अनुपान


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भये पूरन सब अरमान
मेरी 'स्व' से हुई पहचान
अपना कहूँ कि कहूँ पराया
हर चेहरा अनजान
लौट सकी निज सत्व तक
किया है अमृत का अनुपान
मेरी 'स्व' से हुई पहचान....

कैसे जानूँ ,कैसे समझूँ
किससे कैसा नाता है
जुड़ ना पाया हिय से कोई
कोई तो कुछ कुछ भाता है
देखूँ नातों को और उबरूं
क्यूँ व्यर्थ करूँ अभिमान
मेरी  'स्व' से हुई पहचान....

सत्य सार्थक यही है जग में
खुशियाँ बाँटू, खुशियाँ पा लूँ
हर पल जागृत हो कर जी लूँ
हृदय गीत मधुरिम मैं गा लूँ
प्रेम निश्छल सरसे मन मेरा
हो रिश्तों का सन्मान
मेरी  'स्व' से हुई पहचान....

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बुला रहा है कौन


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अव्यवस्थित भीड़,
संबंधों का
कोलाहल...
सुनायी देती है
एक क्षीण सी पुकार
"चली आओ"!!!
खोजती हूँ स्रोत उसका
जाने अनजाने चेहरों में
जिये अनजिये रिश्तों में....

छाँव ममत्व की
देती है सुकून
द्वंदों की धूप में झुलसे
मन को
छुप जाती हूँ
माँ के स्नेहिल आँचल में
सोचते हुए
शायद यहीं है
यहीं कहीं है
जो बुला रहा है मुझको
देने सुकून
तभी होती है सरगोशी सी
कानों में मेरे
"चली आओ ".....

छोड़ कर
माँ की वत्सल गोद
नंगे पाँव चल देती हूं
ऊबड़खाबड़ रास्तों पर
तपती धूप में
सीखती हुई
कई हुनर जीने के
बीच सबके ,
गुम जाती हूँ
अपेक्षाओं और आग्रहों के
भ्रम जाल में ,
बन्ध जाती हूँ
एक अदृश्य डोर से
स्वयं को समझते हुए
अपरिहार्य
सोच लेती हूँ
यहीं तो है आवश्यकता मेरी
यहीं से तो बुला रहा था कोई ....

अचानक हो उठती है तीव्र
वो धीमी सी आवाज़
गूंज जाती है हर दिशा
"चली आओ,चली आओ"..!!

बदहवास सी मैं
दौड़ती हुई
इधर से उधर
भटकती हुई
आकाश से पाताल
कभी किसी से टकराती
कभी किसी को ठुकराती
कर उठती हूँ आर्तनाद
" बुला रहा है कौन ..."
फूट पड़ता है
आँखों के ज़रिए
झरना बन कर
वजूद मेरा....

और तब
एक मासूम नर्म एहसास
लपेट लेता है मुझे
मुझसे ही आती हुई आवाज़ बन कर
यहीं तो हूँ मैं
तुम्हारा ही 'स्वयं'
भूल बैठी हो जिसे तुम
दुनियादारी में
देखो न
कितना अकेला
कितना तन्हा हूँ मैं
तुम्हारे लौट आने के
इंतज़ार में व्याकुल....
चली आओ न तुम
खुद के पास
ख़ुदा के पास
और जान जाती हूँ
तत्क्षण
"बुला रहा था कौन ".....

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

एक अदेखी डोर...


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है कैसा अनाम सा बन्धन
जुड़ कर पहुंचे यूँ स्पंदन
खींच रही मुझे तेरी ओर
एक अदेखी डोर....

जब जब चाहा
दूर हो जाऊँ
पास स्वयं के
तुझको पाऊँ
कैसे तुझसे
भाव छुपाऊँ
भीगी पलकों की कोर.....

प्रीतम आन बसे
हिय मेरे
बाकी सब
अनजाने चेहरे
हलचल दिल में
साँझ सवेरे
धड़कन करती शोर....

छाई थी
विरह रजनी काली
जगमग उजली
आयी दीवाली
सुबह की बेला
अरुणिम लाली
नाच उठा मन मोर....

नयन खुले
सुख-स्वप्न से जग कर
कलियों पर
मँडराते मधुकर
अलसायी किरणों से
सज कर
रची है मेरी भोर.....

होना जुदा
अब नहीं गवारा
सत्य भ्रम
सब हुआ विचारा
निश्चित शाश्वत
साथ हमारा
ओर नहीं कोई छोर
खींचे मुझको डोर.....

रविवार, 4 नवंबर 2018

हर सिम्त तुम ही


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ना जाने मुझको आज सजन
तुम याद बहुत क्यूँ आते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

धड़कन धडकन में गूँज रही
बातें मुझसे जो कहते थे
अक्षर अक्षर में डोल रही
जिस प्रीत में हम तुम बहते थे
पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो.....

लम्हों में युग जी लेते थे
कभी युग बीते ज्यूँ लम्हा हो
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
दिन मजबूरी के थोड़े हैं
तुम आस यही दे जाते हो....

हर सुबह का सूरज आशा की
चमकीली किरने लाता है
सांझ की लाली में घुल कर
इक प्रेम संदेसा आता है
सूरज ढलने के साथ ही तुम
बन चाँद मेरे आ जाते हो....

हर शै में साजन याद तेरी
तुम बिन हर पल यूँ लगता है
नैनों का भीगा सूनापन
ज्यूँ हृदय गीत बन ढलता है
सात सुरों की सरगम से
तुम अष्टम सुर बन जाते हो .....

शनिवार, 3 नवंबर 2018

एहसास

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कल अचानक
नींद में
जाने मुझे उसने
छुआ था ,
चला आया था वो
या उसके होने का
एहसास हुआ था .....