पल भर को भी दूर न होते
ऐसे मानस पर छाये हो
आना जाना श्वासों जैसा
मेरे चाहे कब आये हो
तुमने मुझको कब भरमाया
मैंने तुममें खुद को पाया
किसको समझूँ ,किसको जानूं
रूह के मेरी,तुम साए हो
मेरे चाहे कब आये हो........
महसूस किया स्पर्श तुम्हारा
सत्य,भ्रम क्या नहीं विचारा
अर्पण निश्छल मन कर बैठी
तुम अविचल क्या रह पाए हो?
मेरे चाहे कब आये हो....
जड़ता का बंधन है तोड़ा
अंतस को बस बहता छोड़ा
मन गंगा के प्रचंड वेग को
थामने बन के शिव आये हो
आना जाना श्वासों जैसा
मेरे चाहे कब आये हो.........
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
अहम् व आत्मसम्मान
झीना सा ही अंतर है
अहम् व आत्मसम्मान में
इक फैलाता विष जड़ गहरी
दूजा फूल खिलाये जहान में
स्वयं जो सोचें स्वाभिमान है
वही दूसरे का अभिमान
छोटे से एक मतान्तर को
मान लिया जाता अपमान
जैसा अंतस होता जिसका
प्रतिबिम्ब दिखता वही अन्य में
खोल के मन की आँखें देखो
घिर बैठे क्यूँ तिमिर अरण्य में
नकारात्मक ऊर्जा अहम् की होती
करती निज का ही नुकसान
सोच सकारात्मक दृढ कर अपनी
ढह जाएगा मिथ्या अभिमान
अहम् व आत्मसम्मान में
इक फैलाता विष जड़ गहरी
दूजा फूल खिलाये जहान में
स्वयं जो सोचें स्वाभिमान है
वही दूसरे का अभिमान
छोटे से एक मतान्तर को
मान लिया जाता अपमान
जैसा अंतस होता जिसका
प्रतिबिम्ब दिखता वही अन्य में
खोल के मन की आँखें देखो
घिर बैठे क्यूँ तिमिर अरण्य में
नकारात्मक ऊर्जा अहम् की होती
करती निज का ही नुकसान
सोच सकारात्मक दृढ कर अपनी
ढह जाएगा मिथ्या अभिमान
बुधवार, 18 नवंबर 2009
अंधेरे और बाती की गुफ़्तगू
बाती का जवाब अंधेरे को ...पहाड़ और ज़मीन के साथ शुरू हुई प्रश्न और उत्तर श्रृंखला का एक और पायदान है ..अंधेरे द्वारा किया गया सवाल रचा था मेरे मित्र ने..जिसका जवाब रचा गया मेरी कलम से ...दोनों रचनायें एक साथ ही पूर्ण हैं इसलिए यहाँ अपने मित्र की अनुमति ले कर उनकी रचना 'किया सवाल अंधेरे ने बाती से ' पोस्ट कर रही हूँ..और उसके आगे मेरी रचना 'बाती का जवाब ' ..... पाठक दोनों रचनाओं का एक साथ आनंद ले सके इस मंशा से...
किए सवाल अंधेरे ने बाती से
क्यों
जल जल कर
तबाह कर रही हो
वज़ूद अपना
ए बाती !
देखो मुझे
बैठा हूँ
और कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
उसी की पनाह में….
जलती हो तुम
शायद जिस के लिए
मुझे मिटाने का
मकसद लिए………….
बेवफा दिया
अपने आगोश में
भरता है
अपने हमनवा
तेल को
डूब कर जिसमें
तुम करती हो
कुर्बान खुद को और
नाम होता है दिए का ;
कहते हैं सब
दिया लूटा रहा है रोशनी
और जिस्म खुद का
जलाती हो तुम………….
जला देती हो
जल जल कर तुम
दिए के हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम और
खाली खाली सा दिया
और होता हूँ
छाया सब तरफ
मैं……..
सिर्फ़ मैं………….
मैं घनघोर अंधेरा………
ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती
आज पूछता हूँ
तुझसे
किस-से करती हो
तुम मोहब्बत
दिए से
तेल से या
मुझ से………..?
किस के लिए फ़ना करती हो
वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?
बाती का जवाब अंधेरे को
अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती
पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए
तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त-ए-ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी
जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है
मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में,
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में
ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए व तेल के साथ,
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ
रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हूँ ..
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा
किए सवाल अंधेरे ने बाती से
क्यों
जल जल कर
तबाह कर रही हो
वज़ूद अपना
ए बाती !
देखो मुझे
बैठा हूँ
और कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
उसी की पनाह में….
जलती हो तुम
शायद जिस के लिए
मुझे मिटाने का
मकसद लिए………….
बेवफा दिया
अपने आगोश में
भरता है
अपने हमनवा
तेल को
डूब कर जिसमें
तुम करती हो
कुर्बान खुद को और
नाम होता है दिए का ;
कहते हैं सब
दिया लूटा रहा है रोशनी
और जिस्म खुद का
जलाती हो तुम………….
जला देती हो
जल जल कर तुम
दिए के हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम और
खाली खाली सा दिया
और होता हूँ
छाया सब तरफ
मैं……..
सिर्फ़ मैं………….
मैं घनघोर अंधेरा………
ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती
आज पूछता हूँ
तुझसे
किस-से करती हो
तुम मोहब्बत
दिए से
तेल से या
मुझ से………..?
किस के लिए फ़ना करती हो
वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?
बाती का जवाब अंधेरे को
अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती
पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए
तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त-ए-ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी
जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है
मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में,
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में
ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए व तेल के साथ,
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ
रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हूँ ..
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा
पुकार ज़मीन की और पहाड़ का जवाब
एक मित्र की रचना जिसका जवाब देने की कोशिश में.."सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की " का जन्म हुआ उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ और उसके साथ अपनी रचना ..मेरी रचना इस ज़मीन की पुकार के बिना अधूरी है ..
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने
क्यों करते हो हाय-तौबा
छूने आसमान को
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..
जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
कल झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी मगर
कह डाला था उस ज़मीन पूर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……
काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ या
तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ .दो तुम नशा-ए-गुरूर
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की
चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है
ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की
गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीं की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की
एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है
सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें
आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है
मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना
छूने आसमान को
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..
जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
कल झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी मगर
कह डाला था उस ज़मीन पूर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……
काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ या
तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ .दो तुम नशा-ए-गुरूर
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की
चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है
ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की
गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीं की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की
एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है
सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें
आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है
मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
महक
महक
फूलों की
नहीं
बंधती
चमन की
झूठी
बाड़ों में ..
नहीं
होती है
वो परतंत्र
कभी भी
इन
किवाड़ों में..
नहीं होता है
नियत लक्ष्य
कहाँ जाना
मिले किसको..
न कोई
होता पैमाना
किसे कम या
अधिक किसको
बसी है वो
हवाओं में
बने उसका
जो दीवाना..
भरे आनंद
उस
मन में
जगा दे
इक नया
सपना
बना ले
रूह को
अपनी
महक
ऐसे ही
गुलशन की...
उड़ा दें
दूर तक
खुशबु
हवाएं
तेरे
जीवन की
करो
कुछ ऐसा
जीवन में,
चमन
खिल जाए
हर शै में...
करो न
रूह को
बंदी
किसी
तू-तू
औ'
मैं-मैं में....
फूलों की
नहीं
बंधती
चमन की
झूठी
बाड़ों में ..
नहीं
होती है
वो परतंत्र
कभी भी
इन
किवाड़ों में..
नहीं होता है
नियत लक्ष्य
कहाँ जाना
मिले किसको..
न कोई
होता पैमाना
किसे कम या
अधिक किसको
बसी है वो
हवाओं में
बने उसका
जो दीवाना..
भरे आनंद
उस
मन में
जगा दे
इक नया
सपना
बना ले
रूह को
अपनी
महक
ऐसे ही
गुलशन की...
उड़ा दें
दूर तक
खुशबु
हवाएं
तेरे
जीवन की
करो
कुछ ऐसा
जीवन में,
चमन
खिल जाए
हर शै में...
करो न
रूह को
बंदी
किसी
तू-तू
औ'
मैं-मैं में....
रविवार, 15 नवंबर 2009
हस्ती मिट गई मेरी
जुड़े जो तार तुझसे,ये हस्ती मिट गयी मेरी
असर तेरे तस्सवुर का ,कि नींदें उड़ गयी मेरी
क़दमों में रवानी है,दिल में भी उमंगें है
जानिब तेरे चलने की,चाहत बढ़ गयी मेरी
खिल जाए हँसी लब पर,सोचूं जो तेरी बातें
चुगली मेरे भावों की,निगाहें कर गयी मेरी
उतरी हूँ जाने कैसे , बहर-ए-इश्क में दिलबर
खुद ही तेरे धारे में, कश्ती बढ़ गयी मेरी
शब बीते,सहर कब हो,क्या फर्क मुझे जानां
आके तेरी बाँहों में, घड़ियाँ थम गयी मेरी
हर लम्हा सजा लूँ मैं,बस तेरे ख़यालों से
कुछ और न करने की,हसरत रह गयी मेरी
असर तेरे तस्सवुर का ,कि नींदें उड़ गयी मेरी
क़दमों में रवानी है,दिल में भी उमंगें है
जानिब तेरे चलने की,चाहत बढ़ गयी मेरी
खिल जाए हँसी लब पर,सोचूं जो तेरी बातें
चुगली मेरे भावों की,निगाहें कर गयी मेरी
उतरी हूँ जाने कैसे , बहर-ए-इश्क में दिलबर
खुद ही तेरे धारे में, कश्ती बढ़ गयी मेरी
शब बीते,सहर कब हो,क्या फर्क मुझे जानां
आके तेरी बाँहों में, घड़ियाँ थम गयी मेरी
हर लम्हा सजा लूँ मैं,बस तेरे ख़यालों से
कुछ और न करने की,हसरत रह गयी मेरी
सोमवार, 9 नवंबर 2009
अरमान मेरे दिल के
संग वक़्त-ए-धार के ख़यालात बदल जाते हैं
लोग गिरते हैं मगर गिर के संभल जाते हैं
लांघते हैं दर्द जब, मासूम हदों को दिल की
सूनी सूनी इन आँखों में मोती से मचल जाते हैं
दुनियावी रवायत से डर कर जो बने रिश्ते
हलकी सी इक ठोकर से बेवक्त बदल जाते हैं
तीरों ने ज़माने की दिए ज़ख्म मेरी रूह को
आके तेरी पनाहों में सब घाव सहल जाते हैं
महफिल से उठे,और यूँ चले आए तेरी जानिब
सुरूर-ए-मोहब्बत में, बढ़े पांव फिसल जाते हैं.
राहें तो मेरी बदली, मंजिल का पता वो ही
अरमान मेरे दिल के शायद ही बदल पाते हैं.
लोग गिरते हैं मगर गिर के संभल जाते हैं
लांघते हैं दर्द जब, मासूम हदों को दिल की
सूनी सूनी इन आँखों में मोती से मचल जाते हैं
दुनियावी रवायत से डर कर जो बने रिश्ते
हलकी सी इक ठोकर से बेवक्त बदल जाते हैं
तीरों ने ज़माने की दिए ज़ख्म मेरी रूह को
आके तेरी पनाहों में सब घाव सहल जाते हैं
महफिल से उठे,और यूँ चले आए तेरी जानिब
सुरूर-ए-मोहब्बत में, बढ़े पांव फिसल जाते हैं.
राहें तो मेरी बदली, मंजिल का पता वो ही
अरमान मेरे दिल के शायद ही बदल पाते हैं.
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
मिलन.....(आशु रचना)
उम्र कोई हो
देश कोई हो
काल कोई हो
क्या करना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना
रही तडपती
एक बूँद को
जैसे हो मीन
समुन्दर में
बदरी घिर घिर
कर न बरसी
चातक देखे
अम्बर में
बरसाया जो तूने
अमृत
उस के स्वाद का
क्या कहना
दिल से दिल के
तार जुड़े जब
दूरी तुझसे
क्या सहना
मिलन आत्मा का होता है
देह तो नश्वर होती है
साधन न होता
साध्य कभी भी
मंजिल
परमेश्वर होती है
रूह से रूह का
मेल हुआ जब
देह भावः में
क्या बहना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना .........
देश कोई हो
काल कोई हो
क्या करना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना
रही तडपती
एक बूँद को
जैसे हो मीन
समुन्दर में
बदरी घिर घिर
कर न बरसी
चातक देखे
अम्बर में
बरसाया जो तूने
अमृत
उस के स्वाद का
क्या कहना
दिल से दिल के
तार जुड़े जब
दूरी तुझसे
क्या सहना
मिलन आत्मा का होता है
देह तो नश्वर होती है
साधन न होता
साध्य कभी भी
मंजिल
परमेश्वर होती है
रूह से रूह का
मेल हुआ जब
देह भावः में
क्या बहना
तेरे भावों ने
इस दिल का
श्रृंगार किया
बन के गहना .........
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
स्वयम्भू...
बन बैठा स्वयम्भू मालिक तू
निश्चित कर निज के अधिकार
कभी न जाना क्या है मन में
छद्म दृष्टि से देखा संसार
हर कृत्य होता इसी भावः से
अच्छे से अच्छा बन पाऊँ
दुनिया मुझको खूब सराहे
नज़रों में सबकी चढ़ जाऊँ
पूरी करने हर एक अपेक्षा
करे प्रयत्न जी जान से तूने
फिर भी मन संताप में डूबा
ख़ुशी हृदय न पायी छूने
निज से जब पहचान हुई तो
गिरी दीवारें मान्यताओं की
कब से था सहमा सकुचाया
चिंता थी बस भर्त्सनाओं की
भर्त्सना मिलती तुझको प्राणी
दृढ़ता जब न होती मन में
कभी इधर ,कभी उधर को डोले
बदल जाये हर पल हर क्षण में
सुन तू अपने अंतर्मन की
कभी न देगा गलत सलाह
छुपा वहीँ बैठा है मालिक
तू पायेगा उसकी राह..........
निश्चित कर निज के अधिकार
कभी न जाना क्या है मन में
छद्म दृष्टि से देखा संसार
हर कृत्य होता इसी भावः से
अच्छे से अच्छा बन पाऊँ
दुनिया मुझको खूब सराहे
नज़रों में सबकी चढ़ जाऊँ
पूरी करने हर एक अपेक्षा
करे प्रयत्न जी जान से तूने
फिर भी मन संताप में डूबा
ख़ुशी हृदय न पायी छूने
निज से जब पहचान हुई तो
गिरी दीवारें मान्यताओं की
कब से था सहमा सकुचाया
चिंता थी बस भर्त्सनाओं की
भर्त्सना मिलती तुझको प्राणी
दृढ़ता जब न होती मन में
कभी इधर ,कभी उधर को डोले
बदल जाये हर पल हर क्षण में
सुन तू अपने अंतर्मन की
कभी न देगा गलत सलाह
छुपा वहीँ बैठा है मालिक
तू पायेगा उसकी राह..........
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
भराव
मूँद के आँखें
मूढ़ !!!!!
भरे प्याले में
उन्डेले जा रहा है
तरल
बासी भराव को
बिना किये खाली
कैसे समाएगा
ताजा अमृत
उसमें.....
मूढ़ !!!!!
भरे प्याले में
उन्डेले जा रहा है
तरल
बासी भराव को
बिना किये खाली
कैसे समाएगा
ताजा अमृत
उसमें.....
रविवार, 1 नवंबर 2009
अनजाने रिश्ते
कहनी क्या हैं सुननी क्या है
बातें सब जानी पहचानी
दिल से दिल तक आने वाली
कब होती राहें अनजानी
फिर भी मन शब्दों में ढूंढें
तेरे अंतस के भावों को
रिक्त रहे कोई एक कोना
भर न पाए कुछ घावों को
मरहम तेरे स्नेह का लगता
पर इच्छा बढ़ती ही जाए
करूँ प्रतीक्षा पल पल तेरी
नज़र ख्वाब गढ़ती ही जाए
महसूस करूँ हर लम्हा खुद में
ज़हन पर ऐसा है छाया
दिल की धड़कन में,सांसों में
क्या तूने भी मुझको पाया !!!
कैसे कब जुड़ गया ये नाता
न मैं जानू न तू जाने
नाम कोई न होता इनका
रिश्ते ये होते अनजाने
इन रिश्तों को जी कर ही तो
पूरक होते भावः हृदय के
निज से निज का परिचय होता
बनते रस्ते स्वयं उदय के
बातें सब जानी पहचानी
दिल से दिल तक आने वाली
कब होती राहें अनजानी
फिर भी मन शब्दों में ढूंढें
तेरे अंतस के भावों को
रिक्त रहे कोई एक कोना
भर न पाए कुछ घावों को
मरहम तेरे स्नेह का लगता
पर इच्छा बढ़ती ही जाए
करूँ प्रतीक्षा पल पल तेरी
नज़र ख्वाब गढ़ती ही जाए
महसूस करूँ हर लम्हा खुद में
ज़हन पर ऐसा है छाया
दिल की धड़कन में,सांसों में
क्या तूने भी मुझको पाया !!!
कैसे कब जुड़ गया ये नाता
न मैं जानू न तू जाने
नाम कोई न होता इनका
रिश्ते ये होते अनजाने
इन रिश्तों को जी कर ही तो
पूरक होते भावः हृदय के
निज से निज का परिचय होता
बनते रस्ते स्वयं उदय के