गुरुवार, 5 नवंबर 2009

स्वयम्भू...

बन बैठा स्वयम्भू मालिक तू
निश्चित कर निज के अधिकार
कभी न जाना क्या है मन में
छद्म दृष्टि से देखा संसार

हर कृत्य होता इसी भावः से
अच्छे से अच्छा बन पाऊँ
दुनिया मुझको खूब सराहे
नज़रों में सबकी चढ़ जाऊँ

पूरी करने हर एक अपेक्षा
करे प्रयत्न जी जान से तूने
फिर भी मन संताप में डूबा
ख़ुशी हृदय न पायी छूने

निज से जब पहचान हुई तो
गिरी दीवारें मान्यताओं की
कब से था सहमा सकुचाया
चिंता थी बस भर्त्सनाओं की

भर्त्सना मिलती तुझको प्राणी
दृढ़ता जब न होती मन में
कभी इधर ,कभी उधर को डोले
बदल जाये हर पल हर क्षण में

सुन तू अपने अंतर्मन की
कभी न देगा गलत सलाह
छुपा वहीँ बैठा है मालिक
तू पायेगा उसकी राह..........

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