बुधवार, 18 नवंबर 2009

अंधेरे और बाती की गुफ़्तगू

बाती का जवाब अंधेरे को ...पहाड़ और ज़मीन के साथ शुरू हुई प्रश्न और उत्तर श्रृंखला का एक और पायदान है ..अंधेरे द्वारा किया गया सवाल रचा था मेरे मित्र ने..जिसका जवाब रचा गया मेरी कलम से ...दोनों रचनायें एक साथ ही पूर्ण हैं इसलिए यहाँ अपने मित्र की अनुमति ले कर उनकी रचना 'किया सवाल अंधेरे ने बाती से ' पोस्ट कर रही हूँ..और उसके आगे मेरी रचना 'बाती का जवाब ' ..... पाठक दोनों रचनाओं का एक साथ आनंद ले सके इस मंशा से...

किए सवाल अंधेरे ने बाती से

क्यों
जल जल कर
तबाह कर रही हो
वज़ूद अपना
ए बाती !

देखो मुझे
बैठा हूँ
और कायम हूँ
सुकून-औ -चैन से
उसी की पनाह में….
जलती हो तुम
शायद जिस के लिए
मुझे मिटाने का
मकसद लिए………….

बेवफा दिया
अपने आगोश में
भरता है
अपने हमनवा
तेल को
डूब कर जिसमें
तुम करती हो
कुर्बान खुद को और
नाम होता है दिए का ;

कहते हैं सब
दिया लूटा रहा है रोशनी
और जिस्म खुद का
जलाती हो तुम………….

जला देती हो
जल जल कर तुम
दिए के हमनफस को
और तब
होती हो तूडी-मूडी सी
बुझी-बुझी सी तुम और
खाली खाली सा दिया
और होता हूँ
छाया सब तरफ
मैं……..
सिर्फ़ मैं………….
मैं घनघोर अंधेरा………

ए कोमलांगी
गौरवर्णा
इठलाती
बल खाती
बाती
आज पूछता हूँ
तुझसे
किस-से करती हो
तुम मोहब्बत
दिए से
तेल से या
मुझ से………..?

किस के लिए फ़ना करती हो
वज़ूद अपना…….?
क्या है तुम्हारी फ़ितरत……?
क्या है फलसफा तेरे रिश्तों का….?
कैसी है तेरी ज़फाएँ…….?
कैसी है तेरी वफायें …….?

बाती का जवाब अंधेरे को

अंधेरे के अज्ञान पर
मुस्कुरा उठी
मन में बाती

पूछ्ते हो
जिस वज़ूद के
फ़ना होने का मकसद
जन्मा है वो बस
जलने के लिए
रूप यौवन
सब है व्यर्थ
काम ना आऊं गर
ज़माने के लिए

तम को मिटाना
नहीं मंज़िले-मक़सूद मेरी
वक़्त--ज़रूरत
रोशन कर आलम को
जीना है फ़ितरत मेरी

जिसे तुम कहते
जल जल मरी
वही तो
लुत्फ़--ज़िंदगानी है
किसी घर को करा
मैने रोशन,वही
मेरी राहते रूहानी है

मोहब्बत खुद से है इतनी
फ़ना होती
हूँ अपने लिए
ना जलूं मैं गर
तो बेकार हैं
तेल भरे दिए
वो मेरे हमसफर
देते हैं साथ मेरा
मंज़िल को पाने में,
तुम विराट होके भी
दुबक जाते हो
पनाह में दिए की
जिस लम्हा जलती
मैं ज़माने में

ना कोशिश करो
भरमाने की मुझको
एहसास है मुझे
दोस्ती का अपनी
दिए तेल के साथ,
वफ़ा और जफ़ा का
कोई बंधन नहीं
बस जीते हैं
लिए हाथों में हाथ

रहे भटकाते तुम
सभी को ,
राह दिखाती मैं हूँ
नहीं हटूँगी पथ से अपने
मैं इसी जलने में
खुश हूँ मगन हूँ ..
बिन दीपक बाती अधूरी
बाती बिना दिया भी हारा
भीग दिए के प्रेम तेल में
रोशन करते ये जग सारा

6 टिप्‍पणियां:

  1. x आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 08 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जीवन में अँधेरे की तरह भरमानेवाले अनेकों लोगों से पाला पड़ता है जो अपने कर्तव्य पथ से भटकाने के लिए बड़ा प्रयत्न करते हैं परंतु कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति बाती की तरह अपना कर्म जानता है और उसे पूर्ण करने में लगा रहता है अंत तक....
    दोनों रचनाएँ एक दूजे की परिपूरक हैं। शानदार।

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  3. दीया से बाती और बाती से दीया, दोनों साथ-साथ हैं तो जग रोशन होगा, अलग-अलग रहे तो कोई अस्तित्व नहीं किसी का

    कर्म करते रहो यही जीवन का मर्म है यही दीया बाती से सीख मिलती हैं

    बहुत सुन्दर

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  4. वाह!!!
    दोनों रचनाएं बहुत ही सारगर्भित एवं गहन होकर एक दूसरे की पूरक बन पड़ी हैं....
    लाजवाब सृजन।

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