इक आवाज़
हवा के परों पे सवार
छू जाती है रूह को मेरी ,
बेशक्ल बेनाम
लेकिन बहुत अपनी सी,
पहचानी हुई सदियों से जैसे...
धड़कता है दिल मेरा
तरंगों पर उसकी,
उसी लय ताल पर
हो जाती है एकमेव
आवाज़ मेरी भी...
होता है अनुनाद
अन्तस् से मेरे
गुंजा देता है ब्रह्मांड को
थिरकने लगती है हर शय
उन्ही स्पंदनों पर
और गुनगुना उठती हूँ मैं
शब्द किसी और के
"बिछड़ी हुई रूहों का
ये मेल सुहाना है ....."
बड़ा सुहाना ।
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