शनिवार, 9 नवंबर 2019

के तुम आओगे .......

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शम्मे वफ़ाओं की जलाए बैठी हूँ  , के तुम आओगे
अश्क़ पलकों में छुपाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे...

खामोशियाँ इक दूजे तक पहुंची हैं मगर अब
आस गुफ़्तगू की लगाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे ....

धड़क उठता है दिल मेरा ज़रा सी जुम्बिश पे
नज़र यूँ राह में तेरी ,बिछाए बैठी हूँ के तुम आओगे....

नहीं कटते जुदाई में यूँ तन्हा शाम ओ सहर
तस्सवुर की हसीं महफ़िल,सजाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे ...


हो हर धड़कन में ,साँसों में,समाए रूह में मेरी
खुद को खुद ही से चुराए बैठी हूँ के तुम आओगे....

नहीं थे तुम लकीरों में मेरे हाथों की ये माना
जो था लिक्खा , सब कुछ मिटाए ,बैठी हूँ के तुम आओगे....

है रोशन ये जहां सारा तेरे आने की आहट से
दरीचों के दिये मस्नूई ,बुझाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे....

मायने:
गुफ़्तगू-बातचीत
जुम्बिश-हलचल
तस्सवुर-कल्पना
मस्नूई-बनावटी/पाखंडपूर्ण

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत गजल ....आप को पढ़कर सच कहती हूं बहुत अच्छा लगा

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10 -11-2019) को "आज रामजी लौटे हैं घर" (चर्चा अंक- 3515) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं….
    **********************
    रवीन्द्र सिंह यादव

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