सोमवार, 30 जनवरी 2012

पाकीज़ा दिन



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तुमने मांगी आज सजन
मुझसे बस इक मुस्कान
पाकीज़ा इस दिन पर मैं तो
वार दूं दिल औ' जान

चमक से मेरी नज़रों की
हुए फीके सितारे भी
खिले होठों के आगे गुम हुए
गुल के नज़ारे भी
बसी हैं मेरे आँचल में
बहारें न रही अनजान
पाकीज़ा इस दिन पर मैं तो
वार दूं दिल औ' जान

खिलेगा दिल यहाँ मेरा
महक तुझसे वहां होगी
तू झूमेगा ख़ुशी में तो
हंसी लब पर मेरे होगी
है इस बेनाम रिश्ते के
सच की यही पहचान
पाकीज़ा इस दिन पर मैं तो
वार दूं दिल औ' जान

लुटा दूं आज मैं तुझ पर
हुआ जो अब तलक हासिल
सलामत हैं मेरी खुशियाँ
रहे तू जब तलक शामिल
यही है फलसफा इस प्यार का
हुए हैं जिसपे हम कुर्बान
पाकीज़ा इस दिन पर मैं तो
वार दूं दिल औ' जान

शनिवार, 28 जनवरी 2012

रूपांतरण...


# # #

निखिल निशा
जल-जल
तम को निगल
बना काजल
हुई सफल
यह लौ दीये की...


तपा और बना
अँधेरा
अंजन नयन का,
पाषाण सुरभित
सहा जब
धर्षण चन्दन का,
पंकज निर्लिप्त
पा कर आधार
मैले कीचड का,
सम गंगाजल
नीर बना जो
धोवन प्रभु-चरण का....


शूलों को त्याग
पुष्प हृदय उच्छेद
हुआ गलहार
बनी निर्दयता
स्वतः
ममता हिये की...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

पगे चाशनी बोल मगर.....



अजब गजब से रिश्ते देखे
रंग मंच इस दुनिया के
पगे चाशनी बोल मगर
हैं कड़वे अंतस दुनिया के


चरण पखारें, प्रेम जताएं
ना जाने कितने जन के
सीधे,सच्चे के चढ़ा आवरण
कांटे ढकते निज मन के
पीड़ित खुद को साबित करना
चलन हैं इनकी दुनिया के
पगे चाशनी बोल मगर
हैं कड़वे अंतस दुनिया के


बिना रीढ़ के ,बिना नज़र के
जीवन भी क्या जीवन है
अनुमोदन पाने को भ्रम में
समझ लिया अपनापन है
थोथी नींव नहीं सह सकती
बोझिल रिश्ते दुनिया के
पगे चाशनी बोल मगर
हैं कड़वे अंतस दुनिया के

बुधवार, 25 जनवरी 2012

न जाने क्यूँ !!



छाई है घनघोर घटा ,
चल रही है
पुरवाई,
करते हुए अस्तव्यस्त
मेरे बालों की
लटों को ,
सँभालते हुए
उड़ते हुए दुप्पटे को
ना जाने क्यूँ
तुम और भी याद आते हो !


कितना सुखद होता है न ,
बरामदे में बैठ
गरम पकोड़ों के साथ
अदरक की चाय के घूँट भरते हुए
बारिश को देखना ,
गुज़र जाते हैं जब ऐसे लम्हे
करते हुए शिकायत
न जिये जाने की ,
ना जाने क्यूँ ,
तुम और भी याद आते हो !


भीगते हुए रिमझिम फुहारों में
निकल पड़ती हूँ
उसी जानी पहचानी
सड़क पर ,
कोयलों पर भुने
गरम भुट्टे पर
मसालेदार नीम्बू के
रगड़े जाने की महक
जब उतरती है सांसों में
ना जाने क्यूँ
तुम और भी याद आते हो !


खोल कर बाहें
बादलों से भरे आकाश के नीचे
समा लेती हूँ
कायनात में बरसती नेमतों को
वजूद में अपने
और घुल जाती हूँ मैं भी
हो कर जैसे
कुदरत का ही एक हिस्सा ,
पा लेती हूँ उसी लम्हा
संग तुम्हारा
हो कर पुरवजूद
और
बस सोचती ही रह जाती हूँ
कि ना जाने क्यूँ
तुम भी बस यूँही याद आते हो !!!!

रविवार, 8 जनवरी 2012

वक्र प्रतिबिम्ब-एक अंतर्यात्रा


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सत्य यही है कि :

नहीं होते हैं हम
मूलतः वैसे
जैसे पा रहे होते हैं
स्वयं को
किसी क्षणिक
परिस्थितिजन्य अंतराल में,
जो होता है
अल्पकालिक दर्शाव
कतिपय क्षुद्र
घटना क्रमों का...

सत्य यह भी है कि:

बदल ही जाती हैं
हर स्थिति -परिस्थिति
क्यूंकि
लहरें तो उठती हैं
सतह पर ,
अनुकूल भी
प्रतिकूल भी
और होती है
गहनता
स्थिर चिरकाल तक ,
रहते हुए निस्पृह
बाह्य कारकों से..

उठती है प्रतिध्वनियाँ
हृदय की गहराई में:

नहीं होता है प्रेम
अनुचर
परिस्थितियों का ,
ना ही निर्भर है
प्रेम
लौकिक व्यवहार पर,
प्रत्युत होते हैं
मूक अनुगामी
व्यवहार और
स्थितियां
हृदयों में घटित
प्रेम के...

प्रेम है एक स्थिति
अन्तरंग की,
नहीं है वह कोई
क्षणभंगुर
मनोभाव
जो हो जाए
प्रभावित
समय असमय
बाह्य कारकों से ...

होता है उदगम
प्रेम का
केंद्र से
रहता है जो अविचल
अस्तित्व की
गहराईयों में,
और बहता है
परिधि की ओर,
जहाँ दिख जाते हैं
अनेकों रूप इसके
और
पड़ सकते हैं हम
भ्रम में
देख कर
उन बदलते स्वरूपों को ...

और
होते हैं मुखरित
एहसास अंतर्मन के:

नहीं हैं हम भ्रमित
परिधि पर दिखते
अपने सत्व के
कुछ वक्र प्रतिबिम्बों से
क्यूंकि जुड़े हैं हम
स्व-केंद्र से
जहाँ स्थित है
अविचल ,
अपरिवर्तनीय
परमात्मा
अनादि अनन्त .....




गुरुवार, 5 जनवरी 2012

पोशीदा कड़ी...


# # #

गुज़रते हुए
कूचा-ऐ-मौसिकी से
लिपट जाता है
अक्सर
कदमों से मेरे
कोई नग्मा
बिसराया बरसों से...

थम जाते हैं
बेसाख्ता
पाँव मेरे
करते हुए
महसूस
एक कशिश
सिम्त
उसके बोल
और
सुरों के..

करता है
वह गीत
सरगोशियाँ
नाज़ुक सी,
गहराईयों में
मेरे दिल की,
फैलाते हुए
मुन्फ़रीद
मिठास
और
एहसासात....

हौले से मैं
बिखरा देती हूँ
फिज़ाओं में
लम्बी उँगलियों से
तरन्नुम उसकी,
और
दे देती है
लहरें आहंग की
खुद बखुद
दस्तक
दर पर
अपने हमसफीर
दिल के ....

शुक्रिया !
शुक्रिया !
मेरे अज़ीज़
भूले बिसरे नग्मों,
कायम हो तुम
ना जाने कब से
बन कर
पोशीदा यक कड़ी
इस अबोले
अनाम रिश्ते की....

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मायने -

कूचा-ऐ-मौसिकी=संगीत की गली
सिम्त=दिशा,
सरगोशियाँ=कानाफूसियाँ ,
मुन्फ़रिद=अनूठा
आहंग=संगीत/मेलोडी,
हमसफीर =संग में गाने वाला,
पोशीदा =अदृश्य

बुधवार, 4 जनवरी 2012

थमा हुआ वक्त....

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देखा था तुमने
वक्त-ए -रुखसत
झाँक कर
मेरी आँखों में
और पढ़ लिया था
सब कुछ जो
रह जाता है
अनकहा हमारे बीच

बिना बोले
हो गया था
घटित संवाद
मध्य हमारे ..

दो जोड़ी
लरजते होंठ
और
दो जोड़ी नम आँखें
मिल कर
घुला गए थे
दो अस्तित्वों को
एक दूसरे में

पा लिया था
अर्थ
अपने होने का
हमने
उस एक लम्हे के
असीम विस्तार में
देखो न !!
थमा हुआ है वक्त
उसी एक लम्हे पर
आज तक....

रविवार, 1 जनवरी 2012

बीतना २०११ का


नहीं बीतता वक़्त कभी,
देते हैं हम
अलग अलग नाम
उसे बाँट कर
घंटों,
दिनों,
हफ़्तों ,
माह और सालों में ..

वक़्त है
अनंत
और
अखंड
होता है बस
रूपांतरित
एक पल से
दूसरे पल में

दे कर सीमाएं
वक़्त को ,
कर लिया है
सीमित
हमने स्वयं को भी...
उम्र के मापतौल को
दे कर परिभाषाएं
बचपन,
जवानी
और बुढ़ापे की
जीते हैं कुछ
मानकों को
हम
नाम पर जीवन के
बजाय जीने के
जीवन समग्रता से

नहीं बीतता
बचपन कभी भी ,
होता है रूपांतरित
युवावस्था में
और
होता है
जवानी का रूपांतरण
परिपक्वता में
लेते हुए अनुभव
जिए हुए पलों का ...
बेमानी है हिसाब
उम्र के गणित का
यहाँ ...

इसी तरह
होता है
जीवन भी रूपांतरित
पल दर पल
जुड़ा हुआ विगत से ,
जुड़ते हुए आगत से ..
छोड़ कर देह
फिर जीता है
एक नए रूप
और
नए नाम के साथ ....

बिलकुल उसी तरह
जैसे
२०११ हो रहा है
रूपांतरित
२०१२ में
नयी उमंगें ,
नयी आशाएं लिए हुए

है न
यह भी तो
हमारी ऊर्जा के समरूप
क्यूंकि ऊर्जा है
अनंत और
अविनाशी
समय की ही भांति .