बुधवार, 25 जनवरी 2012

न जाने क्यूँ !!



छाई है घनघोर घटा ,
चल रही है
पुरवाई,
करते हुए अस्तव्यस्त
मेरे बालों की
लटों को ,
सँभालते हुए
उड़ते हुए दुप्पटे को
ना जाने क्यूँ
तुम और भी याद आते हो !


कितना सुखद होता है न ,
बरामदे में बैठ
गरम पकोड़ों के साथ
अदरक की चाय के घूँट भरते हुए
बारिश को देखना ,
गुज़र जाते हैं जब ऐसे लम्हे
करते हुए शिकायत
न जिये जाने की ,
ना जाने क्यूँ ,
तुम और भी याद आते हो !


भीगते हुए रिमझिम फुहारों में
निकल पड़ती हूँ
उसी जानी पहचानी
सड़क पर ,
कोयलों पर भुने
गरम भुट्टे पर
मसालेदार नीम्बू के
रगड़े जाने की महक
जब उतरती है सांसों में
ना जाने क्यूँ
तुम और भी याद आते हो !


खोल कर बाहें
बादलों से भरे आकाश के नीचे
समा लेती हूँ
कायनात में बरसती नेमतों को
वजूद में अपने
और घुल जाती हूँ मैं भी
हो कर जैसे
कुदरत का ही एक हिस्सा ,
पा लेती हूँ उसी लम्हा
संग तुम्हारा
हो कर पुरवजूद
और
बस सोचती ही रह जाती हूँ
कि ना जाने क्यूँ
तुम भी बस यूँही याद आते हो !!!!

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत अहसास... बारिश, भुट्टे और यादें...आपने तो पूरा दृश्य प्रस्तुत कर दिया..घटा, चाय, पकौड़े ने उसमें रंग भर दिए, बधाई!

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  2. होता है ऐसा भी कभी कभी………यादें ही तो है कब दस्तक दे दें।

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  3. यादें...जानलेवा यादें.हर मौसम..हर वक्त साथ साथ चलती यादें !!

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  4. यादों के सुखद एहसासों में डूबी आपकी ये रचना भावुक कर गयी...कमाल का लेखन

    नीरज

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  5. गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
    ----------------------------
    कल 27/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. "खोल कर बाहें
    बादलों से भरे आकाश के नीचे
    समा लेती हूँ
    कायनात में बरसती नेमतों को
    वजूद में अपने
    और घुल जाती हूँ मैं भी
    हो कर जैसे
    कुदरत का ही एक हिस्सा ,
    पा लेती हूँ उसी लम्हा
    संग तुम्हारा
    हो कर पुरवजूद "

    बहुत सुम्दर !

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