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सत्य यही है कि :
नहीं होते हैं हम
मूलतः वैसे
जैसे पा रहे होते हैं
स्वयं को
किसी क्षणिक
परिस्थितिजन्य अंतराल में,
जो होता है
अल्पकालिक दर्शाव
कतिपय क्षुद्र
घटना क्रमों का...
सत्य यह भी है कि:
बदल ही जाती हैं
हर स्थिति -परिस्थिति
क्यूंकि
लहरें तो उठती हैं
सतह पर ,
अनुकूल भी
प्रतिकूल भी
और होती है
गहनता
स्थिर चिरकाल तक ,
रहते हुए निस्पृह
बाह्य कारकों से..
उठती है प्रतिध्वनियाँ
हृदय की गहराई में:
नहीं होता है प्रेम
अनुचर
परिस्थितियों का ,
ना ही निर्भर है
प्रेम
लौकिक व्यवहार पर,
प्रत्युत होते हैं
मूक अनुगामी
व्यवहार और
स्थितियां
हृदयों में घटित
प्रेम के...
प्रेम है एक स्थिति
अन्तरंग की,
नहीं है वह कोई
क्षणभंगुर
मनोभाव
जो हो जाए
प्रभावित
समय असमय
बाह्य कारकों से ...
होता है उदगम
प्रेम का
केंद्र से
रहता है जो अविचल
अस्तित्व की
गहराईयों में,
और बहता है
परिधि की ओर,
जहाँ दिख जाते हैं
अनेकों रूप इसके
और
पड़ सकते हैं हम
भ्रम में
देख कर
उन बदलते स्वरूपों को ...
और
होते हैं मुखरित
एहसास अंतर्मन के:
नहीं हैं हम भ्रमित
परिधि पर दिखते
अपने सत्व के
कुछ वक्र प्रतिबिम्बों से
क्यूंकि जुड़े हैं हम
स्व-केंद्र से
जहाँ स्थित है
अविचल ,
अपरिवर्तनीय
परमात्मा
अनादि अनन्त .....
गहन व सुंदर चिंतन, बधाई।
जवाब देंहटाएंनहीं हैं हम भ्रमित
जवाब देंहटाएंपरिधि पर दिखते
अपने सत्व के
कुछ वक्र प्रतिबिम्बों से
क्यूंकि जुड़े हैं हम
स्व-केंद्र से
जहाँ स्थित है
अविचल ,
अपरिवर्तनीय
परमात्मा
अनादि अनन्त .....
वाह! स्व केन्द्र से जुडना ही जीवन का लक्ष्य
होना चाहिये.
सुन्दर सृजन |
जवाब देंहटाएंबहुत गहराई से निकला चितन..सुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंprem kaa sundar chitran!
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