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पाती हूँ आज़ाद मैं
पाती हूँ आज़ाद मैं
खुद को,
कुदरत के आगोश में ,
छाई है मदहोशी ,
कुदरत के आगोश में ,
छाई है मदहोशी ,
फिर भी,
होती हूँ मैं होश में ....
होती हूँ मैं होश में ....
इश्क मिला है मुझको
जैसे,
कोई तोहफा कुदरत का
ठंडक देती सबा हो
कोई तोहफा कुदरत का
ठंडक देती सबा हो
या फिर ,
ताप सूर्य की फितरत का
इख्तियार कब है
इख्तियार कब है
कुदरत पर ,
क्या देगी कितना देगी !
चाहत तेरी ,तुझे इश्क में
खलिश फ़कत
क्या देगी कितना देगी !
चाहत तेरी ,तुझे इश्क में
खलिश फ़कत
दिल में देगी ...
इश्क कुदरती है उतना ही
जितनी हवा,
इश्क कुदरती है उतना ही
जितनी हवा,
धूप और बारिश ...
महसूस ही
महसूस ही
कर सकते हैं इसको,
मिले नहीं
मिले नहीं
करके गुज़ारिश ...
बरस रहा है इश्क खुदा का
हर लम्हा ,
बरस रहा है इश्क खुदा का
हर लम्हा ,
बस तू गाफ़िल ...
खोल दे मन के
खोल दे मन के
बंद दरवाज़े
सब कुछ फिर
सब कुछ फिर
तुझको हासिल ........
कुदरती इश्क का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंवाह....बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंनीरज
कितनी खूबसूरत बातें कही हैं आपने इस कविता में..वाह :) बहुत सुन्दर!!
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