शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

दीपक



लगातार जल जल कर दीपक ,हो गया महत्वहीन
सहज प्रेम अपनों का फिर भी , न पाया वो दीन

घर को रोशन करता फिर भी ,धरम निभाता अपना
क्षीण थी बाती,तेल शून्य था,ज्योति बन गयी सपना

तभी कोई अनजान मुसाफिर , छू गया सत्व दीपक का
भभक उठी वह मरणासन्न लौ,भर गया तेल जीवन का

हृदय व् मन का कोना कोना ,ज्योति से तब हुआ प्रकाशित
दीपक में किसकी बाती है,तेल है किसका,सब अपरिभाषित

निमित्त बना कोई ज्योति का,फैला चहुँ ओर उजियारा
यही सत्य है, दूर करो सब, मेरे तेरे का अँधियारा

11 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरत कविता!!

    पर इसके फॉण्ट को बड़ा कर लें, पढ़ने में थोड़ी असुविधा होती है!!

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  2. @ लगातार जल जल कर दीपक ,हो गया महत्वहीन


    सत्य है

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  3. मुदिता जी,आप अति गहन भाव को बहुत
    सुन्दर रूप से अभिव्यक्त कर देती हैं.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
    विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    आपका धर्यपूर्वक मेरे ब्लॉग पर इंतजार है.
    आप निराश नहीं करेंगीं,ऐसा मुझे विश्वास है.

    जवाब देंहटाएं
  4. मुदिता जी,आप अति गहन भाव को बहुत
    सुन्दर रूप से अभिव्यक्त कर देती हैं.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
    विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    आपका धर्यपूर्वक मेरे ब्लॉग पर इंतजार है.
    आप निराश नहीं करेंगीं,ऐसा मुझे विश्वास है.

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  5. हृदय व् मन का कोना कोना ,ज्योति से तब हुआ प्रकाशित
    दीपक में किसकी बाती है,तेल है किसका,सब अपरिभाषित.... gahre bhaw

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  6. गहन भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  7. दीपक द्वारा प्रकाश बिखेरना, हृदय में प्रेम का उद्भव ये उनकी निःस्पृह नियति है, जिस तरह सूर्य की नियति दिवस ता प्रकाश व चंद्रमा की नियति शीतल चंद्र-किरण बिखेरना है।

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  8. कल 10/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  9. बढ़िया भाव पूर्ण रचना
    काबिले तारीफ मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

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