यह अनुभूति ,
छुअन है
फूल की
या
ज़ख्मों पर
लगता
मरहम है ,
सोच नहीं पाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....
आती है
सागर से लहर,
ले जाती है
रेत
तले मेरे
क़दमों से ..
गुदगुदाहट सी
तलुवों में,
पा के
खिलखिलाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....
असीम है विस्तार
प्रेम का,
ओर -छोर
इसका
कब दृष्टि
है जान सकी !
आनंद के
इस दरिया में
फिर फिर
गोते खाती हूँ मैं ..
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....
असीम है विस्तार प्रेम का, ओर -छोर इसका कब दृष्टि है जान सकी !आनंद के इस दरिया में फिर फिर गोते खाती हूँ मैं ..लो ! फिर बही जाती हूँ मैं ....... kinara jo tum ho
जवाब देंहटाएंआती है सागर से लहर,
जवाब देंहटाएंले जाती है रेत
तले मेरे क़दमों से ..
गुदगुदाहट सी तलुवों में,
पा के खिलखिलाती हूँ मैं
लो !फिर बही जाती हूँ मैं ....
अंतर्मन के अहसास की अनुपम प्रस्तुति.आपका
निश्छल खिलखिलाना भा गया मन को.
मुदिता जी मेरी नई पोस्ट आपका इंतजार कर रही है.
'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.
....लो फिर बही जाती हूँ मैं '
जवाब देंहटाएं..............अंतस के कोमल भावों की सुखद प्रस्तुति
..................सुन्दर, प्रवाहमयी , मनोहारी रचना
बहो ! जो बाँध बंधे सब झूठे हैं !
जवाब देंहटाएंप्रेम सागर मे बहते रहो कोई तटबंध नही होने चाहिये……………सुन्दर भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंsundar rachana
जवाब देंहटाएंmujhe maate ki baat achhi lagi....:)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव ! प्रेम की उड़ान अनंत है !
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