गुरुवार, 26 मई 2011

लो ! फिर बही जाती हूँ मैं ....

सुखद सी
यह अनुभूति ,
छुअन है
फूल की
या
ज़ख्मों पर
लगता
मरहम है ,
सोच नहीं पाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

आती है
सागर से लहर,
ले जाती है
रेत
तले मेरे
क़दमों से ..
गुदगुदाहट सी
तलुवों में,
पा के
खिलखिलाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

असीम है विस्तार
प्रेम का,
ओर -छोर
इसका
कब दृष्टि
है जान सकी !
आनंद के
इस दरिया में
फिर फिर
गोते खाती हूँ मैं ..
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

8 टिप्‍पणियां:

  1. असीम है विस्तार प्रेम का, ओर -छोर इसका कब दृष्टि है जान सकी !आनंद के इस दरिया में फिर फिर गोते खाती हूँ मैं ..लो ! फिर बही जाती हूँ मैं ....... kinara jo tum ho

    जवाब देंहटाएं
  2. आती है सागर से लहर,
    ले जाती है रेत
    तले मेरे क़दमों से ..
    गुदगुदाहट सी तलुवों में,
    पा के खिलखिलाती हूँ मैं
    लो !फिर बही जाती हूँ मैं ....

    अंतर्मन के अहसास की अनुपम प्रस्तुति.आपका
    निश्छल खिलखिलाना भा गया मन को.

    मुदिता जी मेरी नई पोस्ट आपका इंतजार कर रही है.
    'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.

    जवाब देंहटाएं
  3. ....लो फिर बही जाती हूँ मैं '

    ..............अंतस के कोमल भावों की सुखद प्रस्तुति
    ..................सुन्दर, प्रवाहमयी , मनोहारी रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. बहो ! जो बाँध बंधे सब झूठे हैं !

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रेम सागर मे बहते रहो कोई तटबंध नही होने चाहिये……………सुन्दर भावाव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर भाव ! प्रेम की उड़ान अनंत है !

    जवाब देंहटाएं