अम्बर के
काँधे पे जब,
सर रख कर अवनि सोती है
कितना भी हो
तिमिर घनेरा
हर रात की
सुबह होती है
सूर्य किरण
चूमे ललाट
तब
धरा की देखो
आँख खुले
बहती बयार के
संग संग
इस जीवन का
हर रंग खिले
खिल उठती हँसी
उन्ही में है
जो आंसू
शबनम रोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है .....
उन्मीलित
नयनों से
धरती
क्षितिज को देखो
ताक रही
मन के
सिन्दूरी रंगों को
चेहरे पर उसके
भांप रही
उल्लासित
मन के उपवन में
बीज प्रेम का
बोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है
उल्लासित मन के उपवन में बीज प्रेम का बोती है अम्बर के काँधे पे जब सर रख कर अवनि सोती है
जवाब देंहटाएंअदभुत आनंद का संचार कर रही है आपकी यह अनुपम अभिव्यक्ति.
आप हमेशा ही मन को मुदित कर देतीं हैं 'मुदिता'जी
मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार हो रहा है.
उल्लासित मन के उपवन में बीज प्रेम का बोती है अम्बर के काँधे पे जब सर रख कर अवनि सोती है
जवाब देंहटाएंkhoobsurat abhivyakti
बहुत सुन्दर भाव संयोजन्।
जवाब देंहटाएंpyari se abhivyakti...!!bahut saari khushi jhalak rahi hai...:)
जवाब देंहटाएंसुंदर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसमझ में नही आ रहा कि बधाई अम्बर को दूँ या अवनि को ....पुण्य सलिला हैं आप मुदिता जी....नाद है एक इस शांत कविता में आप जरा देखना तो आप ने क्या लिखा है...
जवाब देंहटाएं"उन्मीलित नयनों से धरती क्षितिज को देखो ताक रही"
खैर आपकी कलम को तो मैं शुरू से ही मनाता हूँ मगर अब तो आप शिखर पर हैं इस कविता में !