बुधवार, 18 मई 2011

आगाज़...

सोचो ,
और ज़रा बताओ तो
कब हुआ था
हमारे रिश्ते का आगाज़ !!

बेसाख्ता
मिल गए थे
हम
यूँही राहों में
और
कर लिया था
महसूस
उस बहते हुए
दरिया को
जिसका आगाज़
जाने कहाँ है
मालूम न था हमें....

जिसका आगाज़ नहीं
अपने बस में
उसको अंजाम देना
मुमकिन है क्या
हम इंसानों को !!!!



3 टिप्‍पणियां:

  1. जिसका आगाज़ नहीं अपने बस में उसको अंजाम देना मुमकिन है क्याहम इंसानों को !!!!
    .....bahut khoob.

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  2. जिसका आगाज़ नहीं अपने बस में उसको अंजाम देना मुमकिन है क्याहम इंसानों को !!!!

    दार्शनिकता का आगाज कराती सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  3. क्या बात है !! बहुत ख़ूब .......

    कई रचनाएं एक साथ पढीं ..... ता'अज्जुब है ..... मैं यहाँ पहले क्यों नहीं आया ??

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