सोमवार, 16 मई 2011

नहीं है मन का ठौर सखी री- (भाग २)

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नहीं है मन का ठौर सखी री ...
बात आज कुछ और सखी री
जगती आँखों के सपने में
मुझे मिले चितचोर सखी री ....

शब्द छंद सब हुए विस्मृत
हृदय हुआ दर्शन से ही तृप्त
चरण पखारूँ निज अंसुवन से
सूझे कुछ न और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ...

प्रेम बन गया भक्ति मेरी
साथ पिया का ,शक्ति मेरी
मन मंदिर में वास उन्ही का
खोजूं क्यूँ कहीं और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ....

मिटा दूं खुद को प्रेम में उनके
मिलूं पिया से जोगन बनके
कण प्रति कण में उनको पाऊँ
देखूं मैं जिस ओर सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ......


7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम बन गया भक्ति मेरी साथ पिया का ,शक्ति मेरी मन मंदिर में वास उन्ही का खोजूं क्यूँ कहीं और सखी री नहीं है मन का ठौर सखी री ....

    आपके निश्छल प्रेम और भक्ति से मेरा मन मुदित हों गया है मुदिता जी.मन का ठौर तो बस वही एक चितचोर है.खोज भी उसकी मन मंदिर में ही हों सकती है.
    आपकी भक्तिपूर्ण प्रस्तुति को हृदय से प्रणाम.

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  2. प्रेम और भक्ति जब जीवन के केन्द्र बन जाते हैं त ब यही हाल होता है, भक्ति जीवनकी पूर्णता है !

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  3. ग़ज़ब का प्रवाह लिए इस गेय रचना के बारे में जितना कहूं कम लगेगा। मैं तो मंत्रमुग्ध हूं।

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  4. वाह्…………भक्ति रस को जीवन्त कर दिया…………यही ठौर तो नही मिलता हर पल बेचैन किये रहता है…………

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  5. लौकिक प्रेम से अलौकिक तक पहुँचाने वाली ....

    आनंद से विभोर कर देने वाली .............................सुन्दर रचना

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  6. शब्द छंद सब हुए विस्मृत हृदय हुआ दर्शन से ही तृप्त चरण पखारूँ निज अंसुवन से सूझे कुछ न और सखी री नहीं है मन का ठौर सखी री ...
    bahut sundar bhav , bahut achchha pravaah aapki rachna me..

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