गुरुवार, 19 मई 2011

नज्में तुम्हारी ...

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भर ली है
अपनी झोली
मैंने
नज्मों से तुम्हारी ....
जिनमें है
संग गुज़रे
लम्हों की खुशबू ..
सब कहा-अनकहा
सिमट आया है
इन बहते हुए
शब्दों में ..
बन गयी हैं
रहनुमा
मेरे अनजान
रास्तों की
नज्में तुम्हारी ..
नहीं होती कभी
मैं तन्हा अब
क्यूंकि
छू कर इनको
महसूस कर लेती हूँ
तुम्हें ...
हुआ था
जन्म इनका
इस छुअन के
इंतज़ार में ही तो ...

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतर नज़्म है
    मुबारकबाद कबूल फरमाएं

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  2. बहुत बढ़िया लगी आपकी यह रचना.

    सादर

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  3. छू कर इनको
    महसूस कर लेती हूँ
    तुम्हे........................मुदिता सुन्दर भाव !!

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  4. नहीं होती कभी
    मैं तन्हा अब
    क्यूंकि
    छू कर इनको
    महसूस कर लेती हूँ
    तुम्हें ...

    वाह! सुन्दर भाव खूबसूरत अहसास.
    आप अपना नाम सार्थक कर देतीं हैं मुदिता जी.
    मन वास्तव में 'मुदित' हों जाता है आपकी रचना पढकर.

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  5. भर ली है
    अपनी झोली
    मैंने
    नज्मों से तुम्हारी ....
    जिनमें है
    संग गुज़रे
    लम्हों की खुशबू ..
    सब कहा-अनकहा
    सिमट आया है
    इन बहते हुए
    शब्दों में ..
    isse achhi baat aur kya

    जवाब देंहटाएं
  6. जिनमें है
    संग गुज़रे
    लम्हों की खुशबू ..
    सब कहा-अनकहा
    सिमट आया है
    इन बहते हुए
    शब्दों में ..

    हाँ सब अनकहा सिमट आया है इस नज़्म में भी...सुन्दर अभिव्यक्ति.

    जवाब देंहटाएं
  7. जिनमें है
    संग गुज़रे
    लम्हों की खुशबू ..
    सब कहा-अनकहा
    सिमट आया है
    इन बहते हुए
    शब्दों में ..

    हाँ सब अनकहा सिमट आया है इस नज़्म में भी...सुन्दर अभिव्यक्ति.

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