सोमवार, 2 अगस्त 2010

क्या अपना क्या पराया....

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जग ने दी थी
परिभाषाएं,
अपना कौन ,
है कौन पराया !
स्पर्श किया
हृदय ने
सत्व को
बाकी सब
बिसराया ....

इस जग की
हर शै में
कोई अपना
बैठा होता,
मन की
गहरी परतों में
कोई सपना
पैठा होता
वही तो सपना
बस है अपना
बाकी झूठ ही पाया....

मेघ ,दामिनी
पवन औ' पावस
हृदय से
सब जुड़ जाते,
खुशबू बसती
अंतर्मन में
फूल भले ही
झड़ जाते
वही तत्व
मन के कोने का
अपनापन कहलाया.....


भेद पराये अपने का
जाना जबसे
ये गहरा,
हुई मुक्त
निज पूर्वाग्रहों से
टूटा मन का
हर पहरा
स्वयं से  भी मैं
रही परायी
भेद
नज़र अब आया........

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर आध्यात्मिक चिंतन करती हुई रचना है। बहुत सुन्दर!!बधाई।

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  2. मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ...जीवन का अंकगणित चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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