सोमवार, 2 अगस्त 2010

मौसम का क़हर भी ...


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आ आ के लौटी है ,साहिल से लहर भी
आ जाएगा महबूब तेरा,दो पल तो ठहर भी

इक लम्हा भी मिल जाए सुकूँ ,इस उम्मीद पे
जी लूं ग़म-ए-दौरां के कुछ और पहर भी

कुछ खौफ़ नहीं इनको तारीकी-ए -शब से
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी

इक तो यूँही कटती नहीं हिज्र की रातें
उस पे है क़यामत हसीं मौसम का क़हर भी

रुकना नहीं फितरत मेरी, हूँ बहता हुआ दरिया
बांधों ना किनारों को ,बनाओ ना नहर भी

लफ़्ज़ों में उतर आते हैं जज़्बात मेरे जब
क्या फ़िक्र ,ग़ज़ल में अगर , ना हो बहर भी

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी क्या बात है ??? गज़ल में भी धार तेज की जा रही है. एक एक शेर लाजवाब है. उम्दा गज़ल.

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  2. Hi..

    Hoti gai jindgi meri..
    Yun hi to basar bhi..
    Padhkar teri gazal ko, hota hai asar bhi..
    Hai dard dil ka bad gaya 'DEEPAK' etna..
    Raaton ka dard sang le hoti hai sahar bhi..

    Sundar..

    Deepak..

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  3. gazal me mera hath bahut tang hai di...par jo khubsurat hai wo khubsurat hai na :)

    too good

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