रविवार, 1 अगस्त 2010

अपनापन...(आशु रचना )


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अपनापन होता है मन में
मन से ही पहचाना जाता
शब्दों के मीठे जालों में
हृदय कभी ना धोखा खाता

नहीं आश्रित रिश्तों पर यह
नहीं नाम की इसको परवाह
हृदय मिले जिनके आपस में
दुनिया से फिर क्यूँ हो चर्चा

मूक पशु भी समझते इसको
नेह स्पर्श सब जतला देता
मन से मन जुड़ जाते हैं जब
हृदय स्पंदन बतला देता

मत बांटो सीमाओं में तुम
अपनापन है इतना विस्तृत
दोगे जितना,कई गुना तुम
पा कर,हो जाओगे विस्मित॥



2 टिप्‍पणियां:

  1. मुदिता जी..

    में भी विस्मृत हो बैठा...
    अपनापन वो पाया है...
    हर व्यक्ति को ह्रदय लगाया...
    राह पे जो भी आया है...

    नेह स्पर्श से में भी हरदम...
    मन से भी अभिभूत रहा...
    कहा नहीं कुछ मैंने मुंह से...
    कविता में सब कुछ है कहा....

    सुन्दर भावाभिव्यक्ति...

    दीपक...

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