गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

होली के rang

खिल उठे गुलाब
कई ,रुखसारों पर
यादों के झुरमुट से
दिखा होली का मंज़र

अल्हड़ चंचल चपला तरुणी
इठलाती मदमाती
भरे हाथ रंगों गुलाल से
खिल खिल कर बल खाती

छेद रही थी पीठ को उसकी
नज़रों की थी वो बौछार
बिना रंग बिन पिचकारी के
भिगो गया उसे त्यौहार

बरस रहे थे तरल नज़र से
भावों के जो ढेरों रंग
संजो लिया उनको अंतस में
अनभिज्ञ बनी रही बहिरंग

अबीर गुलाल और था टेसू
टिका रंग कोई ना तन पे
बरसे थे जो बिन शब्दों के
खिले रहे वो रंग बस मन पे

स्मृति उन रंगीन लम्हों की
कर जाती है मुझको रंगीं
आँख,गाल ,होठ क्या! रूह भी
हैं सब उन रंगों के संगी

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरती से रंगों की छटा बिखेरी है....
    तुम्हार दिए अनभिग्य शब्द से जिस आशु कविता की रचना हुई वो यहाँ लिख रही हूँ... :):)


    हर भावों के रंगों से

    रंजित थी उसकी काया

    अनभिग्य सा भाव दिखा कर

    उसने मेरे मन को भरमाया ।


    भ्रम था उसको इसी बात का

    कि मैंने चेहरा उसका नहीं पढ़ा

    उसके रुखसारों कि लाली को

    मैं देख रहा था खडा -खडा।


    वदन पलाश फूल बना था

    आँखों में झील उतर आई थी

    इन्द्रधनुष के रंगों से फिर

    सारी दुनिया सज आई थी ।


    रक्ताभ अधर पर जैसे

    सूर्य किरण सी बिखरी थी

    कहने को कुछ मन विचलित था

    संकुचित सी खुद में सिमटी थी ।


    सब पढ़ आया एक नज़र में

    खुद अनभिग्य सा बना हुआ

    यही भ्रम बना रहे उसको भी

    कि मैंने उसका चेहरा नहीं पढ़ा.

    संगीता

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