माप दंड तूने गढ़े
निज के हृदय में
मान कर उनको
मुझ पे तेरा भरोसा ..
माप दंडों से पृथक
कुछ भी करूँ मैं
हो अव्यवस्थित
तू लगा देता
इल्ज़ाम मुझ पर
तोड़ देने का तेरा
नाज़ुक भरोसा........
है अहम् तेरा
भरोसे का जनक ही
तुष्ट ना हो वो
तो पाता है तू
खुद को छला सा
दुनिया भर के
तर्क औ कुतर्क
दे कर करता
साबित है तू
फिर अपराध मेरा
कर भरोसा
खुद पे पहले
दृष्टि को कर
अहम् मुक्त तू
है भरोसा
निज पे निज का
सत्य निश्चित
दूसरे को बाँध
कब फलता भरोसा ..
...
badiya bahut badiya
जवाब देंहटाएंbadiya bahut badiya
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