मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

रहनुमा

रहा था मन उलझता ,ज़िन्दगी की राहों में
हुए तुम रहनुमा मेरे, चला तेरी पनाहों में

भटकती सोच थी ,और हर तरफ ,इक शोर मशरे का
हुआ जाता था दिल गाफ़िल, उदासी थी निगाहों में

तलाशें कैसे दुनिया में,ख़ुशी होती है किस शै में
सुकूने दिल तो मिलता है ,सिमट के तेरी बाँहों में

चलो जानां ,गुज़ारें हम ,हसीं लम्हें, परस्तिश में
इबादत का समय अपनी,गुज़र जाये ना आहों में

चले हो साथ तुम मेरे,हसीं है ये सफ़र अपना
मंज़िल का पता किसको ,है बस तस्कीन राहों में

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