गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

दिव्य प्रेम

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घुलनशील कर गया रूह को,
स्नेह स्पर्श तुम्हारा.
दृढ बंधन बाँहों का पा कर ,
सर्वस्व स्वयं ही हारा...


नयनो की भाषा समझी तो ,
प्रेम अबूझ रहा ना
द्वैत मिटा,एकत्व घटा कब,
ये भी अब सूझ रहा ना
छाया बन कर साथ हो पल पल,
बीता दिन यूँ सारा
दृढ बंधन बाँहों का पा कर
सर्वस्व स्वयं ही हारा ...........


हृदय तेरी धड़कन से गुंजित,
खुशबु साँसों में तेरी
अधरों पर छाप तेरे अधरों की,
बाहें बाँहों में तेरी
दिव्य प्रेम के यज्ञ कुंड में,
मन हारा तन वारा
दृढ बंधन बाँहों का पा कर,
सर्वस्व स्वयं ही हारा ...

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम की पराकाष्ठा को बताती अनूठी रचना ...बधाई

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  2. अनुपम रचना ..प्रेम की दिव्यता का बोध कराती हुई !!

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  3. घुलनशील कर गया रूह को,
    स्नेह स्पर्श तुम्हारा.
    दृढ बंधन बाँहों का पा कर ,
    सर्वस्व स्वयं ही हारा...
    - बहुत ही प्यारी सी रचना।।। समर्पित प्रेम को परिभाषित करती हुई बेहतरीन।।।।

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