शनिवार, 20 अगस्त 2022

एतबार तो है ....


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निगाह मिले न मिले, इज़हार तो है

लब खुले न खुले , इक़रार तो है....


सजा के बैठे हैं ,दिल के चमन को

गुल खिले न खिले ,इंतज़ार तो है....


समा गयी रूहें ,बिछोह कैसा अब

हिज्र टले न टले , क़रार तो है ....


फुर्सतें कब उलझनों में दुनिया की 

वक़्त मिले न मिले,इख़्तियार तो है....

 

मुक़र्रर संग अपना ,है रज़ा इलाही की

सच खुले न खुले , एतबार तो है....


मुक़र्रर - निश्चित

12 टिप्‍पणियां:


  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२२-०८ -२०२२ ) को 'साँझ ढलती कह रही है'(चर्चा अंक-१५२९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. क्या कहने वाह..बहुत सुदंर रचना।

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  3. सजा के बैठे हैं ,दिल के चमन को
    गुल खिले न खिले ,इंतज़ार तो है....
    बहुत ख़ूब शेरों से सजी खुबसूरत ग़ज़ल प्रिय मुदिता जी।मन मुदित कर गई आपकी रचना।बहुत बहुत बधाई आपको।

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