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निगाह मिले न मिले, इज़हार तो है
लब खुले न खुले , इक़रार तो है....
सजा के बैठे हैं ,दिल के चमन को
गुल खिले न खिले ,इंतज़ार तो है....
समा गयी रूहें ,बिछोह कैसा अब
हिज्र टले न टले , क़रार तो है ....
फुर्सतें कब उलझनों में दुनिया की
वक़्त मिले न मिले,इख़्तियार तो है....
मुक़र्रर संग अपना ,है रज़ा इलाही की
सच खुले न खुले , एतबार तो है....
मुक़र्रर - निश्चित
बस ऐतबार होना चाहिए । बहुत खूब।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२२-०८ -२०२२ ) को 'साँझ ढलती कह रही है'(चर्चा अंक-१५२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह!वाह!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंखूबसूरत लिखा!
जवाब देंहटाएंउम्दा सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंBahut khoob.
जवाब देंहटाएंक्या कहने वाह..बहुत सुदंर रचना।
जवाब देंहटाएंसजा के बैठे हैं ,दिल के चमन को
जवाब देंहटाएंगुल खिले न खिले ,इंतज़ार तो है....
बहुत ख़ूब शेरों से सजी खुबसूरत ग़ज़ल प्रिय मुदिता जी।मन मुदित कर गई आपकी रचना।बहुत बहुत बधाई आपको।
वाह वाह बहुत खूब !!
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